क्या करूं मैं ऐसा ही हूं...

Tuesday, January 31, 2012

मतदान के प्रति उदासी लाजिमी है

संविधान ने 18 वर्ष से अधिक आयु के सभी नागरिकों को मतदान करने का अधिकार दिया हुआ है। लेकिन आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि पूरे 100 फीसदी मतदान हुआ हो। देश का औसत मतदान केवल 58 फीसदी है। ऐसा नहीं है कि लोगों को मतदान की महत्ता पता नहीं है। मतदान सत्ता की चाबी है जो अप्रत्यक्ष रूप से जनता के पास होती है। सब कुछ जानते हुए भी अगर लोग मतदान नहीं करते तो निश्चय ही यह गंभीर समस्या है और इसका निदान खोजा जाना चाहिए।
आजादी से आज तक के राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें। नागरिकों की मतदान के प्रति उदासीनता उसी में छुपी है। सत्ता कुछेक परिवारों की रखैल बन कर रह गई है जो उसका अपनी इच्छा से प्रयोग करते हैं। जो सत्ता को हासिल नहीं कर पाए वे सत्ताधारियों के साथ लग गए ताकि अपनी राजनीतिक वंश बेल को हरा रख सकें। गांधी परिवार तो इसका जीता-जागता उदाहरण है।
हम अपनी संस्कृति पर गर्व करते हैं। उसे अपना आदर्श मानते हैं। भले, ही यह संभव हो, पर हम रामराज्य का ख्वाब देखते आए हैं। हर नेता में राम को ढूंढऩे का प्रयास करते हैं। रोटी, कपड़ा और मकान के लुभावने वायदों पर आज तक कितने ही चुनाव लड़े गए। फिर भी देश की 80 फीसदी से अधिक आबादी 20 रुपये से भी कम रोजाना पर गुजारा करें, 42 फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हों और मानव विकास सूचकांक में बांग्लादेश जैसे छोटे देश से भी पीछे हों तो निराशा जरूर होती है।
जब जन प्रतिनिधियों से उम्मीदें समाप्त हो जाएं तो मतदान से उदासी होना स्वाभाविक है। जब मतदान करने और न करने से कोई फर्क ही न पड़ तो मतदान का क्या फायदा? अब यह बात गांव-देहात में बैठे लोगों को भी समझ में आने लगी है। एक किसान व्यंग्य करते हुए कहता है मतदान से क्या फायदा। सभी प्रत्याशी इतने अच्छे हैं कि यह चयन करना मुश्किल हो जाता है कि श्रेष्ठ कौन है।
न तो आम आदमी चुनाव में खड़ा हो सकता है और न ही जीत सकता है। यही से लोगों की मजबूरी शुरू होती है। मजबूरन लोगों को उन्हीं बेईमान-भ्रष्ट लोगों में से एक का चयन करना पड़ता है। ईमानदार और शिक्षित लोग या तो राजनीति में आते नहीं या उन्हें जल्दी ही आउट कर दिया जाता है। राजनीति इतनी दूषित हो चुकी है कि अगर कोई ईमानदार आदती आ भी जाए तो परिस्थितियां उसे बेईमान बना देती हैं। कुल मिलाकर अंत में भ्रष्टï लोग ही टिक पाते हैं। यही आज तक बार-बार होता है। लोग अब मतदाता कार्ड का प्रयोग देश का भविष्य चुनने से अधिक पहचान पत्र के रूप में करते हैं। संवैधानिक अधिकार केवल पहचान तक सीमित हो गया है। घटता मतदान स्वस्थ लोकतंत्र का प्रतीक नहीं है। इन सब समस्याओं का समाधान केवल राजनेताओं की मानसिकता के बदलाव में है।

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