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Wednesday, January 4, 2012

किसानों की बर्बादी पर राजनीति

    वर्ष 2011 किसानों को लंबे समय तक याद रहेगा। साल भर महंगाई ने लोगों को सताया, लेकिन सबसे अधिक प्रभावित हुए किसान।  जब उनकी फसल पक कर तैयार हुई तो दाम इतने गिरे की लागत भी पूरी नहीं हुई। धान और आलू की फसल ने किसानों को बर्बादी के कगार पर ला खड़ा किया।
    इससे घटिया और विफल कृषि नीति क्या हो सकती है कि जब किसान अपनी चीज बेचे तो एक रुपये किलो और जब किसान उसी चीज को बाजार से खरिदे तो दस रुपये किलो। कृषि नीति की विफलता और बाजारी शक्तियों की सफलता के कारण फसल कोई उगाता है, मेहनत कोई करता है, उसका मुनाफा कोई और ले जाता है और सारे मामले पर राजनीति कोई और ही खेल जाता है।
    उत्पादक और उपभोक्ता के बीच में काम करने वाली शक्तियां इस मंदी की मार में भी मुनाफा कमा गई। इन शक्तियों ने कभी फसल में पानी नहीं दिया, धूप में उनकी कटाई नहीं की, बीज लेने के लिए सुबह चार बजे से लाइन में नहीं लगे और कभी यूरिया के लिए भाग दौड़ नहीं की। फिर भी इनका मुनाफा यह सब झेलने वाले किसान से अधिक है। अंधी पीसे और कुत्ता खाए वाली नीतियों को तो सफल नहीं कहा जा सकता।
    यहां किसान बर्बाद हो रहे हैं और सरकार उनकी बर्बादी पर भी अपनी पीठ थपथपा रही है। धान, टमाटर, आलू आदि दूसरी फसलों की कीमतें कम होने का परिणाम यह हुआ कि खाद्य मुद्रास्फीति  में करीब तीन साल के बाद पहली बार गिरावट दर्ज की गई। महंगाई के कारण आलोचना झेल चुकी सरकार खाद्य पदार्थों की मुद्रास्फीति में गिरावट का श्रेय उसकी आर्थिक नीतियों को दे रही है। यहां यह जानना आवश्यक है कि खाद्य मुद्रास्फीति फसलों के दाम कम होने के कारण कम हुई किसी की आर्थिक नीतियों की बदौलत नहीं।
    आर्थिक नीतियों की सफलता तब मानी जाती, जब वह किसानों को उनकी फसलों के वाजिब दाम दिलाती और कीमतों को नियंत्रण में रखती।  जब किसान से फसल खरिदी जाती है उस समय कीमतें मामूली और जब वहीं चीज उपभोक्ताओं तक पहुंचती है तो कीमतें आसमान पर। सरकार इन दोनों ही कामों के असफल हुई।  सरकार उत्पादक और उपभोक्ताओं के बीच बाजारी शक्तियों, मुनाफाखोरों, कालाबाजारी आदि मूल्य वृद्धि के कारणों पर रोक लगाने में विफल हो गई। अगर सरकार इस बीच के सैगमेंट पर नियंत्रण कर पाती तो आर्थिक नीतियों को श्रेय देना तर्कसंगत होता। 
    मुद्रास्फीति कम करने के रिजर्व बैंक के तमाम प्रयास विफल हो गए। क्या कभी ऐसा भी हुआ है कि नीतियां सफल हो जाएं और उसका परिणाम भुगतने वाले कंगाल। अगर सरकार बाजारी ताकतों पर नियंत्रण नहीं लगा पाती तो किसान को इतना सक्षम बनाए कि कोई उसकी फसल को औने-पौने दामों में खरिदने की जरूरत न कर सके। जब सबकुछ बाजार तय करेगा तो दोनों पक्षों का बराबर होना जरूरी है। विपरित स्थिति में बाजार पर सरकार का नियंत्रण होना अत्यंतावश्यक है।

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