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Monday, February 20, 2012

यह ईरान है ईराक या अफगानिस्तान नहीं


    ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर पूरे विश्‍व में बहस छिड़ी हुई है। इजराइल के लिए यह व्यक्तिगत दुश्मनी तो अमेरिका के प्रभुत्व को सीधे तौर पर चुनौती। दुनिया भर की निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि इरान विरोधी देशों का अगल कदम क्या होगा? निश्चित तौर पर इस मामले में ईरान या ईरान विरोधी देशों का कोई भी कदम पूरे विश्व को प्रभावित करने वाला होगा।
    अमेरिका बहुत पहले से ईरान पर परमाणु कार्यक्रम चलाने का आरोप लगाता आ रहा था। ईरान भी इसे लगातार नकारता आया था। अब खुद ईरान ने दुनिया के सामने परमाणु कार्यक्रम की घोषणा कर दी है। ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने परमाणु ऊर्जा सयंत्र में 20 प्रतिशत तक संवृद्धित यूरेनियम की छड़ें डालने की बात कहीं है। हालांकि परमाणु बम के लिए यूरेनियम का बहुत अधिक संवृद्धित होना जरूरी होता है। इस लिहाज से ईरान द्वारा परमाणु बम बनाने की शंकाए निर्मूल हैं। फिर भी ईरान का परमाणु कार्यक्रम कई मायनों में महत्वपूर्ण है।
    ईरान ने परमाणु कार्यक्रम की घोषणा ऐसे समय में की है जब उस पर भारत में ईजराइली राजनयिक को निशाना बनाने और बैंकॉक में धमाके करने के आरोप लग रहे हैं। ईजराइल इन हमलों के पीछे ईरान का हाथ बता रहा है। दिल्ली और बैंकॉक धमाकों ने ईजराइल को ईरान की आलोचना करने का एक और मौका दे दिया है। उसने सुरक्षा परिषद से कार्रवाई तक की मांग कर डाली। यह बात अलग है कि उसकी मांग को रुस ने वीटो का इस्तेमाल कर निरस्त कर दिया।
    यह बहस यहीं पर आकर समाप्त नहीं हो जाती। परमाणु हथियारों की दृष्टि से अमेरिका सबसे समृद्ध राष्ट्र है। अमेरिका और उसके पिछलग्गू देश इस पर अपना एकाधिकार बनाये रखना चाहते हैं। अमेरिका ग्रुप को यह नागवार गुजरता है कि कोई और देश इस तकनीकी को हासिल करे। जैसे-जैसे विज्ञान में प्रगति हो रही है और लोगों की जरूरतें बढ़ रही हैं, परमाणु ऊर्जा की जरूरत और इसकी पर निर्भरता बढ़ती जा रही है।
    अमेरिका अफगानिस्तान और ईराक पर बहाने ढूंढकर हमले कर चुका है। दोनों ही जगह पर अमेरिका और उसके सहयोगियों की कूटनीतिक हार हुई।  अंतरराष्ट्रीय  बिरादरी में किरकिरी हुई सो अलग। ईरान का परमाणु कार्यक्रम ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिए है। फिर भी अमेरिका एंड पार्टी के लिए यह नागवार है। अफगानिस्तान और ईराक में दोनों हाथ जला चुका अमेरिका अब और लड़ाई लडऩे की स्थिति में नहीं है।  वहीं ईरान में ईराक की तरह कमजोर नहीं है। अमेरिका खुद बेरोजगारी और मंदी की मार झेल रहा है। अगर लड़ाई छिड़ी तो ईरान से अधिक नुकसान अमेरिका को उठाना पड़ेगा। अफगानिस्तान और ईराक के हुक्मरानों को जनसमर्थन हासिल नहीं था तो ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद के साथ पूरा ईरान खड़ा है। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में रूस जैसा देश। हां, अमेरिका और उसके सहयोगी मिलकर ईरान पर प्रतिबंद्ध जरूर लगा सकते हैं। इसका असर इरान पर महंगाई और बेरोजगारी के रूप में हो सकता है और विश्व पटल पर तेल की महंगाई के रूप में। भारत का इस मुद्दे पर रुख प्रशंसनीय है। ईरान, भारत के तेल व्यापार में सबसे बड़ा सांझीदार है। इस लिहाज से भारत किसी भी सूरत में ईरान पर कार्रवाई का समर्थन नहीं कर सकता।
    क्यूबा के राजनेता फिदेल कास्त्रो की तरह ईरान के राष्ष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद भी अमेरिका के धुर विरोधी हैं। यहां सवाल परमाणु कार्यक्रम का नहीं, अमेरिका की दादागिरी का है। अमेरिका परमाणु कार्यक्रम चलाये तो सही और कोई दूसरा करे तो गलत। अगर परमाणु बम घातक है तो यह बात अमेरिका के बमों पर भी लागू होती है। अगर अमेरिका खुद परमाणु हथियारों को न रखता तो उसका विरोध वाजिब होता। अब न तो ईजराइल और न ही अमेरिक एंड पार्टी का विरोध कोई महत्व रखता।

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