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Sunday, March 4, 2012

भारतीय संदर्भ में महिलाओं से भेदभाव



      इस तथ्य में कोई दो राय नहीं है कि महिलाओं से भेदभाव सार्वभौमिक हो चुका है। हर देश, काल, संस्कृति, स्थान और धर्म में महिलाओं से भेदभाव होता रहा है। उनको पुरुषों की तुलना में कम अधिकार प्राप्त हैं और नित्य प्रति भेदभाव से सामना करना पड़ता है। भारतीय संदर्भ में महिलाओं के अधिकार और उनसे भेदभाव इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यहां इस विषय को धर्म, धर्म को संस्कृति, संस्कृति को विचारधारा और विचारधारा को नित्य प्रति जीवन से जोड़ा गया है। धर्म से जुड़ा होने के कारण महिलाओं की अनदेखी और उनसे भेदभाव का प्रयोजन और इनकी शुरुआत तो समझ में आती है, लेकिन निवारण स्पष्ट रूप से कहीं नजर नहीं आता। भेदभाव की समाप्ति पूरी व्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन मांगता है। महिलाओं से भेदभाव, असमानता, अन्याय संस्कृति में इस कदर मिश्रित हो चुका है कि खुद महिलाएं भी यदा-कदा इसे सही ठहराती नजर आती हैं। पीएचडी की छात्रा अच्छे वर के लिए शुक्रवार और सोमवार का व्रत रखती है तो उससे इसी आशय की पुष्टि होती है।
पितृतंत्रात्मक समाज
      भारतीय समाज में अनादिकाल से ही पितृतंत्रात्मक संरचना रही है। वैदिक काल में भी उल्लेख मिलता है कि पुरुष परिवार का मुखिया होता था। इस व्यवस्था ने पुरुष को वर्चस्ववादी तो महिला को निर्बल बना दिया। वर्तमान सामाजिक व्यवस्था, मान्यताएं, प्रणाली, रीति-रिवाज, सामाजिक बंधन, मर्यादाएं सभी पुरुषों के वर्चस्व का परिणाम हैं। इन सभी के व्यवहार में आने से पुरुष ऊपर उठता गया तो महिला निरंतर नीचे की ओर अग्रसर हुई।
      अगर आज अधिकतर महिलाएं गृह कार्यों तक सीमित हैं तो यह पितृतंत्रात्मक प्रणाली की देन है। अपनी योग्यता, शक्ति, बुद्धि और सृजनात्मक शक्ति दिखाने के अवसर घर से बाहर मौजूद हैं। पुरुष ने महिलाओं को इनसे वंचित कर इन पर अपना एकाधिकार जमा लिया। प्राचीन सभ्यताओं, वैदिक काल, हड़प्पा संस्कृति, मैसोपोटामिया, मिश्र की सभ्यता आदि में कार्य विभाजन इसी तर्ज पर हुआ है। महिलाएं घरेलू कार्य करती थीं तो पुरुष घर से बाहर के कार्य। 21वीं सदी तक गृह कार्य करते-करते महिलाएं मानने लगी हैं कि उनका काम बच्चे पैदा करना, उनका पालन-पोषण करना, चूल्हा-चौका करना, पुरुषों की डांट-डपट सहना और उनकी शारीरिक भूख मिटाना है। पितृतंत्रात्मक प्रणाली ने महिलाओं  और पुरुषों दोनों के लिए अलग-अलग मापदंड निर्धारित किए है। इनका निर्धारण पुरुषों द्वारा किया गया, इसलिए महिला को बंधनों में बांधकर पुरुष ने अपने लिए आजादी, वर्चस्व, कार्यक्षेत्र, अधिकार निर्धारित किए। यहीं से महिला और पुरुष में भेद शुरू हुआ। काल दर काल यह व्यवस्था मजबूत होती गई। उत्तराधिकार की परंपरा ने पुत्र प्राथमिकता को जन्म दिया। जन्म से मिले अधिकारों और सामाजिक व्यवस्था के कारण लड़के, इंजीनियरिंग, चिकित्सा आदि की पढ़ाई की ओर उन्मुख होते हैं तो लड़कियां गृह-विज्ञान और सिलाई-कढ़ाई की ओर। विभेद की नींव बचपन से ही रख दी जाती है। एक लड़का कार, जीप, सिपाही आदि खिलौनों के साथ खेलता है तो लड़की गुडिय़ा की शादी कराती है।
शारीरिक भेद
     फायर स्टोन ने लिंग वर्ग के संदर्भ में कहा है कि नारी की शारीरिक व्यवस्था उसकी प्रताडऩा का कारण है। यह निर्विवाद सत्य है कि शारीरिक विभेद प्राकृतिक और सार्वभौमिक है। पुरुष और नारी के शरीर की बनावट, आवाज, जनन अंगों, वक्षस्थल की बनावट में अंतर नैसर्गिक है। यह भेद सभी जातियों और प्रजातियों में पाया जाता है। यह भेद किसी एक को बौद्धिक या शारीरिक रूप से अधिक क्षमताशील नहीं बनाता। नरेंद्र कुमार सिंघी ने अपनी पुस्तक समाज शास्त्रीय सिद्धांत-विवेचना एवं व्याख्या में उल्लेख किया है कि नारी का शारीरिक और बौद्धिक विकास पुरुष की सोच, अपेक्षा, और कल्पना के अनुरूप हुआ है। नारी की चाल-ढाल, व्यवहार, तौर-तरीके, मर्यादा, आदतें, अंग सज्जा, श्रंगार, वस्त्र आदि सब कुछ पुरुषों ने अपनी पसंद के अनुसार निर्धारित किया है। महिला ने स्व को भुलाकर इसे आत्मसात किया है।
      पुरुष ने महिला के जीवन के तमाम पहलू और आयाम खुद निर्धारित कर उसके दिमाग और सोच पर कब्जा कर लिया। स्त्री के शरीर को कौमार्य, पवित्रता, नख-शिख वर्णन, वैधव्य, रजस्वला, बलात्कार, वेश्वावृत्ति आदि से जोड़कर उसका उसके शरीर से भी हक छीन लिया। जब महिला का अपने शरीर, दिमाग, मन, बुद्धि पर ही अधिकार नहीं तो बराबरी की कहां कल्पना की जा सकती है। सदियों से पुरुष निर्मित कुटिल और भेदपूर्ण व्यवस्था का हिस्सा बने रहने के कारण महिला अपनी पहचान खो बैठी और उस नक्शे-कदम पर चल पड़ी जिस पर पुरुष उसे चलाना चाहता था। समाज में महिलाओं को महिलाओं पर ही उसके बांझ, विधवा, चरित्र आदि को लेकर ताने मारते देखा जा सकता है।
नारी विरोधी साहित्य
      साहित्य में भी नारी के साथ न्याय नहीं किया गया। कहीं उसे स्वर्ग की प्राप्ति में बाधक तो कहीं प्रताडऩा का अधिकारी बता दिया। यह जानना आवश्यक है कि यह साहित्य पुरुषों का ही लिखा हुआ है। उसे भोग्या बताकर उसकी तमाम सृजनात्मक क्षमताओं को नकार दिया गया। एकाध जगह मीरा, लक्ष्मी बाई, रजिया सुल्ताना के गीत भी भूल से गाये गए हैं।
      साहित्य, टीवी, पत्रिकाओं आदि में महिलाओं की बौद्धिक सुंदरता को नकार कर उसके शरीर को खूब बेचा जा रहा है। अपने घिनौने कृत्य का सहारा लेने के लिए जो दिखता है वो बिकता है वाक्यांश ईजाद कर लिया। नारी के शरीर को काम से जोड़कर बड़ी चतुराई से उसकी रचनात्मक, सृजन शक्ति, बौद्धिक शक्तियोंंको दर-किनार कर उसे एक जिस्म, एक वस्तु और खिलौने के रूप में स्थापित किया जा रहा है। महिलाएं भी इसे अपना विकास मानकर खिलौना बनकर रह गई हैं।
      इस समाजीकरण के कारण एक ही परिवार का हिस्सा होते हुए भी एक बालक और एक बालिका अलग-अलग वातावरण, विचारों और धारणाओं के साथ बढ़ते हैं। भविष्य का घर का स्वामी होने के कारण  बालक को साहसिक, बौद्धिक और आक्रामक वृत्ति की ओर प्रवृत्त किया जाता है तो बालिका को इन सबसे दूर क्षमा, भय, लज्जा, सहनशीलता, सहिष्णुता आदि गुणों को आत्मसात करने के लिए पे्ररित किया जाता है।
सामाजिक लांछन
     पुरुष ने स्त्री के शरीर के भिन्न-भिन्न अर्थ निकाले हैं। कौमार्य को उसकी शारीरिक पवित्रता और मातृत्व को उसकी पूर्णता से जोड़कर देखा जाता है। विधवा, बिन ब्याही मां बनना, बलात्कार, तलाक, वेश्यावृत्ति, बांझपन आदि का कारण पुरुष बनता है जबकि परिणाम केवल महिला भोगती है। बिन ब्याहे बाप, तलाकशुदा, नपुंसक पुरुष के लिए तो कोई लांछन तो पुरुषों ने गढ़े ही नहीं। इसी तरह सुंदर वर प्राप्ति, संतान, अगले जन्म, पति की लंबी आयु के लिए स्त्रियों के लिए तमाम प्रपंच  बने। लेकिन पुरुषों ने अपने को इस प्रकार के बंधनों से आजाद रखा।
      हाल ही में भारतीय प्रैस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने टिप्पणी की थी कि मीडिया कर्मियों को बलात्कार, छेड़छाड़ आदि की घटनाओं में पीडि़ता का नाम प्रकाशित नहीं करना चाहिए। सामाजिक व्यवस्था के कारण पीडि़त महिलाओं का नाम मीडिया में सार्वजनिक होने के बाद उनके विवाह की संभावना कम हो जाती है। दूसरी ओर, बलात्कार के दोषी पुरुष  के साथ ऐसा नहीं होता। पुरुष वर्चस्व और दोहरे मापदंडों के कारण कितनी ही महिलाएं वैवाहिक बलात्कार झेलती है जिनका कहीं कोई रिकार्ड नहीं होता। परिवार नियोजन के लिए भी महिला का शरीर की इस्तेमाल होता है, जबकि पुरुष की नसबंदी अपेक्षाकृत आसान और अधिक सुरक्षित है। बालिका को जन्म से ही बताया जाता है-पिता का घर उसका नहीं है। ससुराल आकर उसे महसूस होता है कि यह घर भी उसका नहीं है। महिला जिंदगी भर घर विहिन रहती है और दोहरा, उत्पीडऩ, पीड़ा और अपमान झेलती है। 

सुखद है बदलाव की बयार
     नि:संदेह महिला उत्पीडऩ और अधिकारों के हनन की श्रंखला बहुत लंबी है। उत्पीडऩ और अधिकारों के हनन का कारण सामाजिक संरचना, पितृतंत्रात्मक व्यवस्था और पुरुष का वर्चस्व है।  इसलिए इस समस्या का निदान भी संस्थाओं के परिवर्तन में ही छुपा है। खुद से ही पहल कर समाज की तस्वीर बदली जा सकती है। नारीवाद आंदोलन और शिक्षा की बदौलत महिलाएं जागरूक हुई हैं। उन्होंने अधिकारों की प्राप्ति के लिए आवाज उठानी शुरू कर दी है। फिलहाल यह समाज के उच्च वर्गों में चल रहा है। निम्रवर्ग इस परिवर्तन की बयार से अभी भी अछूता हैं। समाज के सभी वर्गों तक पहुंचने के लिए ढांचे में परिवर्तन की जरूरत है।

2 comments:

  1. agar desh me Keral jaise education or society ho to ladies se partiality rook saktti hai. Is partiality ka sabse bada karan hai Patriarchal society or hamari mahilaon k parti soch. Hum navratre karte hai, Laxmi,Durga ki pooja karte hain lekin jab hum par bat aati h to hum use apne se kamjor samjhte hain or niche rakhna chahte hai...

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  2. india me swang to equality ka bhut rcha jata h lekinn sachai bilkul alag h. aaye din gagnrape ke mamle samne aa rhe hain. all these are based on sexual bioness. even educated families also practice it..... i dont hot that it would be come to an end.......

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