क्या करूं मैं ऐसा ही हूं...

Monday, December 31, 2012

यह मौत बेकार नहीं जानी चाहिए....


दिल्ली गैंगरेप पीडि़ता की सिंगापुर के अस्पताल में 13 दिन बाद मौत हो गई। यह मौत स्त्रियों की पूजा का स्वांग रचने वाले कथित सभ्य समाज और लोकतंत्र के माथे पर वो कलंक जिसे कभी साफ नहीं किया जा सकता। इस घटना ने पुरुष वर्ग का दोहरा चरित्र, संवेदनाहीन राजनीति, पंगु  समाज, बर्बर पुलिस, लाचार कानून और तानाशाह पुलिस की असलियत सबके सामने ला दी है। यह एक दुराचार पीडि़ता की मौत नहीं बल्कि मानवीय मूल्यों की हार है।
इस घटना ने देश के सामने यक्ष प्रश्न खड़ा कर दिया है कि आखिर इस प्रकार की घटनाओं पर किस प्रकार रोक लगाई जा सकती है। दुराचारियों को फांसी देने की मांग देश में जोरों से चल रही है। यह सही है कि स्त्री को जीते जी मारने वाले हैवान को भी जीने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। लेकिन यह महज एक आकस्मिक या घटनात्मक गुस्सा है जो समय साथ शांत हो जाएगा।  दूसरा, दुराचारियों को फांसी की सजा का प्रावधान भी आंशिक समाधान करता नहीं आता। पुलिस तक आधे मामले ही पहुंच पाते हैं। बाकि मामले दबा दिए जाते हैं या पैसे देकर मामला निपटा हो जाता है। इसके बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कठोर सजा इस रेप कल्चर पर कुछ हद तक रोक लगाने में कारगर होगी।
दुराचार के पीछे पुरुष मानसिकता नजर आती है जो औरत को एक जिस्मानी जरूरत से  अधिक कुछ और नहीं समझती। यही हमारे नैतिक मूल्यों का पतन हैं। हमें अपनी माताएं, बहनें और परिवार की स्त्रियां तो पूजनीय नजर आती हैं लेकिन दूसरों की हमें शिकार के रूप में दिखाई देती हैं। पत्रकार अजय शुक्ल का ठीक कहना  है-हम यह तो चाहते हैं कि हमारे परिवार में काई स्त्री कम कपड़े न पहने लेकिन दूसरों की स्त्रियों का नग्न देखने के लिए लाख जत्न करते हैं। हमारी गालियां तब तक पूरी नहीं होती जब तक उसमे मां या बहन का नाम नहीं आ जाता। यही हमारी दोहरी मानसिकता है जिसे बदलने की जरूरत है। हालात इतने बुरे हैं कि कोई बाप इस बात को लेकर निश्चिंत नहीं है कि उसकी बेटी सुरक्षित घर  पहुंच जाएगी। मानसिकता में बदलाव लाना एक दीर्घकालीन प्रक्रिया और हमारी सोच, सामाजिक ताने बाने पर आधारित है। लेकित तब तक दुराचार की अनुमति तो नहीं दी जा सकती? इसलिए रेप कल्चर पर रोक लगाने के लिए कठोर सजा का होना बहुत जरूरी है। फांसी की सजा को लेकर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और कानूनविदों की राय अलग हो सकती है। यह भी जरूरी नहीं है कि कठोर सजा ऐसे घृणित कृत्यों पर पूरी तरह रोक लगा पाएगी। फिर भी कठोर सजा कुछ हद तक जरूर कारगर होगी।
  नए कानून में दुराचारियों ही नहीं बल्कि ऐसे मामलों में उदासीनता दिखाने वाले और पीडि़ता को परेशान करने वाले पुलिस कर्मचारियों और अधिकारियों को भी सजा का प्रावधान होना चाहिए। अधिकांश मामले पुलिस के अनाप-शनाप सवालों के डर और उसके समझौते के दबाव के चलते सामने ही नहीं आ पाते। पटियाला में एक लड़की ने इसलिए जहर पीकर आत्महत्या कर ली कि पुलिस उसे जांच के नाम पर शर्मिंदा और तंग करती थी। आरोपी आए दिन उसे ताने देते थे और अंजाम भुगतने की धमकी देते थे। जब घटना ने तूल पकड़ा तो पंजाब में ही दुराचार के तीन महीने बाद केस दर्ज करने का मामला भी सामने आया। जहां लड़की के घर से बाहर निकलते ही भेडिय़े पीछे लग जाते हों और पुलिस तीन महीने तक केस दर्ज नहीं करती वहां साधारण सजा से कैसे न्याय की उम्मीद की जा सकती है।
यह महज संयोग नहीं है कि जिस समय दिल्ली की बस में एक  लड़की अपने सतीत्व की रक्षा के लिए संघर्ष कर  रही थी उस समय यूपीए सरकार एफडीआई बिल के पास होने की जीत का विजय जश्न मना रही थी। एक दूसरी पार्टी को एससी/एसटी को पदोन्नति में आरक्षण का कानून पारित न होने का मलाल था तो तीसरी पार्टी को बिल के पास होने से अपनी कुर्सी हिलती हुई नजर आ रही थी। घटना के आठवें दिन प्रधानमंत्री का मौन टूटता है। उस समय उन्हें पीडि़ता या घटना से कहीं ज्यादा अपनी वीडियो की चिंता थी कि वे टीवी  पर ठीक नजर आएं। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के बेटे न तो यहां तक कह दिया था-इंडिया गेट पर प्रदर्शन कर रहीं महिलाएं पहले ब्यूटी पार्लर में जाती हैं। वहां से सज-संवर कर प्रदर्शन करने आती है ताकि उनकी फोटो ठीक आए।  बंगाल के एक नेता टिप्पणी करते हैं कि दुराचार पीडि़त लड़कियों के लिए मुआवजा मांगने वाली ममता बैनर्जी अपना दुराचार होने पर कितना मुआवजा लेंगी। यह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का चेहरा है जिन्हे हम चुनकर संसद में भेजते हैं। क्या महिलाओं पर अभद्र टिप्पणी करने वाले, उन्हें उपभोग की वस्तु समझने वाले जन प्रतिनिधि को सजा नहीं मिलनी चाहिए?
बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन का कहना है-महिलाएं कहीं सुरक्षित नहीं हैं। महिलाओं को गाली दी जाती हैं, उन्हें दबाया जाता है, तंग किया जाता है, प्रताडि़त किया जाता है, जलाया जाता है, दुराचार-सामूहिक दुराचार किया जाता है और उसका हर दिन मर्डर किया जाता है। कोई महिला न तो शांति से जी सकती है और न शांति से मर सकती।
दिल्ली की घटना ने पूरे देश को एक कर दिया है। हमारे दामन में 2012 में जाते-जाते ऐसा दाग लग गया है जिसे धोने में सदियां भी कम पड़ जाएंगी। 28 दिसंबर को दुराचार पीडि़त युवती की मौत पर जरूर खुदा भी रोया होगा। बस और गैंगरेप नहीं। इस रेप कल्चर पर रोक लगनी चाहिए। अब लड़कियों पर नहीं अपने लड़कों पर नजर रखने की जरूरत है। वह लड़की ऊपर से यह कह रही होगी कि- अब कभी न आऊंगी इस देश......।