क्या करूं मैं ऐसा ही हूं...

Monday, December 31, 2012

यह मौत बेकार नहीं जानी चाहिए....


दिल्ली गैंगरेप पीडि़ता की सिंगापुर के अस्पताल में 13 दिन बाद मौत हो गई। यह मौत स्त्रियों की पूजा का स्वांग रचने वाले कथित सभ्य समाज और लोकतंत्र के माथे पर वो कलंक जिसे कभी साफ नहीं किया जा सकता। इस घटना ने पुरुष वर्ग का दोहरा चरित्र, संवेदनाहीन राजनीति, पंगु  समाज, बर्बर पुलिस, लाचार कानून और तानाशाह पुलिस की असलियत सबके सामने ला दी है। यह एक दुराचार पीडि़ता की मौत नहीं बल्कि मानवीय मूल्यों की हार है।
इस घटना ने देश के सामने यक्ष प्रश्न खड़ा कर दिया है कि आखिर इस प्रकार की घटनाओं पर किस प्रकार रोक लगाई जा सकती है। दुराचारियों को फांसी देने की मांग देश में जोरों से चल रही है। यह सही है कि स्त्री को जीते जी मारने वाले हैवान को भी जीने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। लेकिन यह महज एक आकस्मिक या घटनात्मक गुस्सा है जो समय साथ शांत हो जाएगा।  दूसरा, दुराचारियों को फांसी की सजा का प्रावधान भी आंशिक समाधान करता नहीं आता। पुलिस तक आधे मामले ही पहुंच पाते हैं। बाकि मामले दबा दिए जाते हैं या पैसे देकर मामला निपटा हो जाता है। इसके बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कठोर सजा इस रेप कल्चर पर कुछ हद तक रोक लगाने में कारगर होगी।
दुराचार के पीछे पुरुष मानसिकता नजर आती है जो औरत को एक जिस्मानी जरूरत से  अधिक कुछ और नहीं समझती। यही हमारे नैतिक मूल्यों का पतन हैं। हमें अपनी माताएं, बहनें और परिवार की स्त्रियां तो पूजनीय नजर आती हैं लेकिन दूसरों की हमें शिकार के रूप में दिखाई देती हैं। पत्रकार अजय शुक्ल का ठीक कहना  है-हम यह तो चाहते हैं कि हमारे परिवार में काई स्त्री कम कपड़े न पहने लेकिन दूसरों की स्त्रियों का नग्न देखने के लिए लाख जत्न करते हैं। हमारी गालियां तब तक पूरी नहीं होती जब तक उसमे मां या बहन का नाम नहीं आ जाता। यही हमारी दोहरी मानसिकता है जिसे बदलने की जरूरत है। हालात इतने बुरे हैं कि कोई बाप इस बात को लेकर निश्चिंत नहीं है कि उसकी बेटी सुरक्षित घर  पहुंच जाएगी। मानसिकता में बदलाव लाना एक दीर्घकालीन प्रक्रिया और हमारी सोच, सामाजिक ताने बाने पर आधारित है। लेकित तब तक दुराचार की अनुमति तो नहीं दी जा सकती? इसलिए रेप कल्चर पर रोक लगाने के लिए कठोर सजा का होना बहुत जरूरी है। फांसी की सजा को लेकर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और कानूनविदों की राय अलग हो सकती है। यह भी जरूरी नहीं है कि कठोर सजा ऐसे घृणित कृत्यों पर पूरी तरह रोक लगा पाएगी। फिर भी कठोर सजा कुछ हद तक जरूर कारगर होगी।
  नए कानून में दुराचारियों ही नहीं बल्कि ऐसे मामलों में उदासीनता दिखाने वाले और पीडि़ता को परेशान करने वाले पुलिस कर्मचारियों और अधिकारियों को भी सजा का प्रावधान होना चाहिए। अधिकांश मामले पुलिस के अनाप-शनाप सवालों के डर और उसके समझौते के दबाव के चलते सामने ही नहीं आ पाते। पटियाला में एक लड़की ने इसलिए जहर पीकर आत्महत्या कर ली कि पुलिस उसे जांच के नाम पर शर्मिंदा और तंग करती थी। आरोपी आए दिन उसे ताने देते थे और अंजाम भुगतने की धमकी देते थे। जब घटना ने तूल पकड़ा तो पंजाब में ही दुराचार के तीन महीने बाद केस दर्ज करने का मामला भी सामने आया। जहां लड़की के घर से बाहर निकलते ही भेडिय़े पीछे लग जाते हों और पुलिस तीन महीने तक केस दर्ज नहीं करती वहां साधारण सजा से कैसे न्याय की उम्मीद की जा सकती है।
यह महज संयोग नहीं है कि जिस समय दिल्ली की बस में एक  लड़की अपने सतीत्व की रक्षा के लिए संघर्ष कर  रही थी उस समय यूपीए सरकार एफडीआई बिल के पास होने की जीत का विजय जश्न मना रही थी। एक दूसरी पार्टी को एससी/एसटी को पदोन्नति में आरक्षण का कानून पारित न होने का मलाल था तो तीसरी पार्टी को बिल के पास होने से अपनी कुर्सी हिलती हुई नजर आ रही थी। घटना के आठवें दिन प्रधानमंत्री का मौन टूटता है। उस समय उन्हें पीडि़ता या घटना से कहीं ज्यादा अपनी वीडियो की चिंता थी कि वे टीवी  पर ठीक नजर आएं। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के बेटे न तो यहां तक कह दिया था-इंडिया गेट पर प्रदर्शन कर रहीं महिलाएं पहले ब्यूटी पार्लर में जाती हैं। वहां से सज-संवर कर प्रदर्शन करने आती है ताकि उनकी फोटो ठीक आए।  बंगाल के एक नेता टिप्पणी करते हैं कि दुराचार पीडि़त लड़कियों के लिए मुआवजा मांगने वाली ममता बैनर्जी अपना दुराचार होने पर कितना मुआवजा लेंगी। यह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का चेहरा है जिन्हे हम चुनकर संसद में भेजते हैं। क्या महिलाओं पर अभद्र टिप्पणी करने वाले, उन्हें उपभोग की वस्तु समझने वाले जन प्रतिनिधि को सजा नहीं मिलनी चाहिए?
बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन का कहना है-महिलाएं कहीं सुरक्षित नहीं हैं। महिलाओं को गाली दी जाती हैं, उन्हें दबाया जाता है, तंग किया जाता है, प्रताडि़त किया जाता है, जलाया जाता है, दुराचार-सामूहिक दुराचार किया जाता है और उसका हर दिन मर्डर किया जाता है। कोई महिला न तो शांति से जी सकती है और न शांति से मर सकती।
दिल्ली की घटना ने पूरे देश को एक कर दिया है। हमारे दामन में 2012 में जाते-जाते ऐसा दाग लग गया है जिसे धोने में सदियां भी कम पड़ जाएंगी। 28 दिसंबर को दुराचार पीडि़त युवती की मौत पर जरूर खुदा भी रोया होगा। बस और गैंगरेप नहीं। इस रेप कल्चर पर रोक लगनी चाहिए। अब लड़कियों पर नहीं अपने लड़कों पर नजर रखने की जरूरत है। वह लड़की ऊपर से यह कह रही होगी कि- अब कभी न आऊंगी इस देश......।

Monday, April 23, 2012

हरियाणा में स्कूली शिक्षा


     आर्थिक रूप से समर्थ होने के बाद भी हरियाणा में शिक्षा का वह स्तर नहीं है, जो होना चाहिए था। इसका स्पष्ट कारण है कि प्रदेश में कोई शिक्षा नीति ही नहीं है। अप्रैल 11 को जारी हुए हरियाणा स्कूल एजूकेशन गु्रप सी सर्विस रूल्स-2012 से साफ हो गया है कि प्रदेश में योग्य शिक्षकों की नियुक्ति का कोई मानक नहीं है। जब योग्य शिक्षकों की नियुक्ति नहीं होगी तो किस प्रकार उत्तम शिक्षा का ख्वाब पाला जा सकता है।
     शिक्षक भर्ती का मानक, मिड-डे मील,  सिलेबस और परीक्षा स्वरूप में नित नए परिवर्तनों से प्रदेश की शिक्षा में अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है। नए रूल्स के मुताबिक कोई भी अयोग्य उम्मीदवार राजनीतिक पहुंच के कारण आसानी से शिक्षक नियुक्त हो सकता है। नए रूल्स में शिक्षक भर्ती में राज्य स्तरीय पात्रता टेस्ट को समाप्त कर केवल चार साल के अध्यापन अनुभव को ही न्यूनतम योग्यता निर्धारित किया गया है। 000 साल पहले सरकार ने योग्य उम्मीदवारों की नियुक्ति के लिए राज्य स्तरीय टेस्ट अनिवार्य किया था। अब सरकार ने इस टेस्ट को दरकिनार कर इसकी वैधता पर ही सवाल उठा दिया है। सवाल यह है कि जब चार साल का अध्यापन का अनुभव ही न्यूनतम योग्यता है तो 00 साल पहले यह टेस्ट क्यों अनिवार्य किया गया? वर्तमान में शिक्षक भर्ती की न्यूनतम योग्यता चार का अध्यापन अनुभव किसी भी सहायता प्राप्त स्कूल से आसानी से पैसे से प्राप्त किया जा सकता है।
     नए सर्विस रूल्स में पहले भर्ती के बाद तीन साल की अवधि में राज्य स्तरीय टेट पास करना अनिवार्य किया गया था। बाद में इसे समाप्त कर केवल चार साल का अनुभव ही  न्यूनतम योग्यता निर्धारित कर दिया। प्रदेश में शिक्षक नियुक्ति को जो नया मानक बनाया गया है उससे प्रदेश की शिक्षा स्थिति और बिगड़ेगी। शिक्षक भर्ती की न्यूनतम योग्यता भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने और योग्य पात्र उम्मीदवार को उसके हक से दूर करने वाली है। प्रदेश में भाई-भतीजावाद  और क्षेत्रवाद पहले ही चरम पर है। नए सर्विस रूल्स प्रदेश की शिक्षा को दो प्रकार से नुकसान पहुंचाएंगे। एक तो अयोग्य शिक्षकों की भर्ती को बढ़ावा मिलेगा जो सीधे प्रदेश के शिक्षा के स्तर के लिए घातक होगा। हरियाणा में पहले ही राजकीय स्कूल संसाधनों, शिक्षकों और पढ़ाई न होने के कारण विद्यार्थियों की कमी से जूझ रहे हैं। ऐसे में अगर अयोग्य शिक्षक भर्ती होंगे तो विद्यार्थियों की राजकीय स्कूलों में संख्या और तेजी से घटेगी। दूसरा अयोग्य का चुनाव होने से योग्य और पात्र उम्मीदवारों में निराशा पनपेगी होगी। हरियाणा सरकार पहले ही पात्र उम्मीदवारों के भर्ती करने के दबाव को झेल रही है। राज्य स्तरीय पात्रता टेस्ट की महत्ता कम होने के कारण टेस्ट के प्रति भी उम्मीदवारों का क्रेज कम होगा। शिक्षा नीति न होने के कारण अब गरीब लोग भी हैसियत न होने के बावजूद अपने बच्चों को नीजि स्कूलों में भेजना पसंद करते हैं।
      13 मई 2011 से   प्रदेश के राजकीय स्कूलों में लागू हुए मिड-डे मील भी राजकीय स्कूलों में विद्यार्थियों की संख्या नहीं बढ़ा पाया। प्रदेश में यह धारणा बच चुकी है कि राजकीय स्कूल केवल दिहाड़ीदार मजदूरों के बच्चों के लिए हैं। मिड-डे मील के कारण स्कूलों में दोपहर में व्यवस्था देखी जा सकती है। सरकार ने भले ही आरटीई लागू कर दिया हो लेकिन सरकारी स्कूलों की स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है। सरकार की अनदेखी, लापरवाही, राजनीतिक हितों के पोषण और उदासीनता के कारण निजी स्कूलों की भरमार हो गई है। अगर सरकारी स्कूलों के समानांतर निजी शिक्षा खड़ी हुई है और खूब बिक रही है तो यह केवल सरकार और सरकारी नीतियों की विफलता है। सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों की संख्या घटने और निजी शिक्षा के तेजी से पनपने के लिए केवल सरकार उत्तरदायी है। निजी स्कूलों में भेजना बच्चों की मजबूरी बन चुकी है। लोग अपनी हैसियत न होने के बावजूद बच्चों को निजी स्कूलों में भेजने को मजबूर हैं। अगर सरकार आरटीई, मिड-डे मील और योग्य शिक्षकों की भर्ती में पारदर्शिता रख पाती तो राजकीय स्कूलों की यह स्थिति नहीं होती।

Sunday, March 18, 2012

किराया वृद्धि पर राजनीति क्यों?


     रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी द्वारा पेश किए गए रेल बजट ने भारतीय रेल तंत्र और भारतीय राजनीति की तस्वीर स्पष्ट कर दी। इससे पहले शायद ही कभी किराया वृद्धि पर इतना हल्ला मचा हो। भारतीय रेलतंत्र अव्यवस्था और घाटे के गर्त में फंसा है। रेलमंत्री की किराया बढ़ाकर स्थिति को आंशिक रूप से उभारने की कोशिश पर तृणमूल कांग्रेस, विपक्षी दल और कांग्रेस राजनीति कर रही है उससे विश्व पटल और आम आदमी के दिमाग में भारतीय राजनीति की नकारात्मक छवि बनी है।
     रेलमंत्री और रेल बजट का विरोध एक वोट लालसा के अतिरिक्त कुछ नहीं है। रेल बजट प्रकरण ने कम से कम यह तो स्पष्ट कर दिया किया कि भारतीय राजनेताओं के लिए वोट जन कल्याण, मर्यादा और अनुशासन आदि सभी चीजों से ऊपर है। रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने दो पैसे प्रति किलोमीटर से 30 पैसे प्रति किलोमीटर तक किराये में वृद्धि की है। इस वृद्धि पर हो-हल्ला मचाने वालों ने शायद एक बार भी रेलवे की माली आर्थिक हालत के बारे में नहीं सोचा। वर्षों से रेल नेटवर्क को आधुनिक करने की बात चल रही है, लेकिन राजनीतिक हितों के कारण यह तंत्र आधुनिकीकरण से कोसों दूर खड़ा है। रेलमंत्री त्रिवेदी ने रेलतंत्र को आधुनिक बनाने के लिए आगामी दशक में 14 लाख करोड़ रुपये खर्च करने की जरूरत बताई है। मौजूदा बजट में केवल 61,100 करोड़ रुपये खर्च करने का प्रावधान किया गया है। इससे हमारी रेल व्यवस्था की आर्थिक स्थिति आसानी से स्पष्टï हो जाती है। रेलवे के परिचालन और व्यय का अनुपात 95 फीसदी तक बढ़ गया है। रेल बोर्ड के पूर्व चेयरमैन वीके अग्रवाल ने रेलवे की कमाई बढ़ाने की जरूरत बताई है। उनके अनुसार अगर दस फीसदी किराया बढ़ाया जाता तो रेलवे को शायद और मदद मिलती।
घाटे में कब तक दौड़ेगी रेल?
रेलवे के आय और व्यय के निरंतर बढ़ते ग्राफ ने किराया वृद्धि के लिए मजबूर कर दिया। राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति और वोट लालसा में आठ साल तक किराया नहीं बढ़ाया गया। रेल बजट पर आंखें ततेरने वालों से सीधा प्रश्न है कि आखिर कब तक रेल को घाटे मे दौड़ाया जा सकता है। आखिरकार कभी न कभी तो घाटे की दरार को पाटने के लिए कोई सख्त कदम तो उठाना ही पड़ेगा।
     किराया वृद्धि न करने की सूरत में तंत्र मजबूती के दो ही उपाय हो सकते हैं-सब्सिडी या उत्पादन ईकाइयों को निजी क्षेत्र को सौंपना। 2001 में मोहन राकेश समिति ने दूसरे विकल्प की सिफारिश की थी। राजनीतिक हितों को देखते हुए दूसरे विकल्प पर अब तक विचार नहीं हो सका। पहले विकल्प के लिए सरकार सक्षम नहीं है। बजट से कुछ दिन पहले वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी कह चुके थे कि सरकार पर सब्सिडी का बोझ निरंतर बढ़ता जा रहा है। यह बोझ इतना बढ़ चुका है कि इसे और नहीं बढ़ाया जा सकता। ऐसी स्थिति में केवल किराया वृद्धि ही अंतिम विकल्प बचता है। एक आदर्श स्टेशन के इंजीनियर के मुताबिक रेलवे इतनी माली हालत से गुजर रहा है कि उसके पास जरूरी काम निपटाने के लिए भी बजट नहीं है। रेलवे बोर्ड के पूर्व वित्तायुक्त एनपी श्रीनिवास ने भी रेल बजट पर राजनीतिक शोर को गलत बताया है। उनका कहना है कि कुछ लोगों के राजनीतिक हितों के लिए रेलवे को रसातल में ले जाना श्रेयकर नहीं है।
और इधर गठबंधन की मजबूरी
किराया वृद्धि कर रेलमंत्री रेलवे का ही कोष भरने की कोशिश कर रहे हैं। जिस पर इतने बड़े तंत्र की जिम्मेदारी हो उसे उसको दुरुस्त के लिए दलगत राजनीति से ऊपर उठकर फैसले लेने ही पड़ते हैं। किराया वृद्धि से ममता इतनी नाराज हुईं कि उन्होंने प्रधानमंत्री को रेलमंत्री त्रिवेदी को हटाने के लिए कथित तौर पर पत्र तक लिख दिया। ममता की इस हेकड़ी से यूपीए सरकार चिंता में है। उसके लिए न तो किराया वापस लेना संभव हो रहा और न ही ममता की नाराजगी सहना। यह पहला मौका नहीं है जब ममता यूपीए को कथित तौर पर ब्लैकमेल कर रही हैं। इससे पहले एनटीपीसी, एफडीआई जैसे मुद्दे ममता के विरोध के कारण ही ठंडे बस्ते में चले गए थे। मनमोहन सरकार आगे कुंआ पीछे खाई वाली स्थिति में है। जब तक सरकार गठबंधन टूटने से डरती रहेगी तब तक देशहित में कोई कारगर कदम नहीं उठा सकती। रेलवे किसी एक पार्टी की संपति या जागीर नहीं है। आखिर बढ़ा हुआ किराया रेलमंत्री की जेब में नहीं जाएगा। बजट में कही गई ट्रैफिक रेगूलेटरी अथोरिटी या कोई ऐसा प्राधिकरण बन जाए तो मालभाड़ा और किराया वृद्धि दलगत राजनीति से मुक्त हो जाएगा।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                               


Wednesday, March 14, 2012

Naxalism in India


     Lalgarh operation was the good manifestation of suppression the voice of poor and downtrodden. As naxalits have not modern equipments and tactics of war, accepted their defeat at the hands of security forces.
     Naxalism is not a sudden arisen problem, long pressed anger, grinding poverty, rising inequality, failure of government policies are the causes of this problem standing against India. Naxalism was started from naxalwari village of West Bengal where some poor farmers revolted against their land holders to seize their land as they worked on that. When their demands could not met, at long last they took arms in their hands. By the time it became easiest way to get their demands fulfilled.
     No doubt naxalism is fomenting unrest in India but suppression of naxalism at the hands of forces is not permanent solution. ''More you try to press it, more it will blast''. Government should go at root causes of naxalism to over come it. Naxalism is prevailed mostly in West Bengal, Asam, Chatisgarh, Jharkhand, Bihar, Odisha, Madhya Pardesh and some parts of a Rajasthan and Utter Pardesh,  poor regions of our country. these regions are naxal infested areas.
     Corruption at different level of government, insensitivity of political classes, harassment that poor face at the hands of police, cast bigotry etc. all are accountable for generating anger among poor. Feeling of retaliation makes them naxals. Naxalits takes it as a weapon. They get their demands fulfilled by armed attack on innocent people, hostage taking and destruct infrastructure, symbols of democracy. These naxal activities are against the law and order of India. How long one can bear poverty, crying children for food and dying relatives in the lack of medical services. This looses their faith from government, democracy and such person can be persuaded easily against government by anti national forces.
     It's also believed that Nepal and China are instigating these people to generate anti India atmosphere directly or indirectly. Nobody can dispute this fact military strategies are totally fail to end this tension. Even many military commanders also accepted it.
     In operations innocent people are kept in police custody, faces consequences and civilian killed, which gives oxygen to naxalits to grow fast and effectively. Normal life is disrupted in  military operational area that also give air to spread to anti government air. People finally start helping naxalits.
     This problem should be solved by negotiation only. Government should persuade naxals to come on negotiations table. Government should examine issues related to basic facilities and social justice. It is moral responsibility of Government  to develop such backward areas so that poverty can be removed, health and education can be lifted up. Government should try to keep away such political alliances which are against negotiation for their political gain.

Sunday, March 4, 2012

भारतीय संदर्भ में महिलाओं से भेदभाव



      इस तथ्य में कोई दो राय नहीं है कि महिलाओं से भेदभाव सार्वभौमिक हो चुका है। हर देश, काल, संस्कृति, स्थान और धर्म में महिलाओं से भेदभाव होता रहा है। उनको पुरुषों की तुलना में कम अधिकार प्राप्त हैं और नित्य प्रति भेदभाव से सामना करना पड़ता है। भारतीय संदर्भ में महिलाओं के अधिकार और उनसे भेदभाव इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यहां इस विषय को धर्म, धर्म को संस्कृति, संस्कृति को विचारधारा और विचारधारा को नित्य प्रति जीवन से जोड़ा गया है। धर्म से जुड़ा होने के कारण महिलाओं की अनदेखी और उनसे भेदभाव का प्रयोजन और इनकी शुरुआत तो समझ में आती है, लेकिन निवारण स्पष्ट रूप से कहीं नजर नहीं आता। भेदभाव की समाप्ति पूरी व्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन मांगता है। महिलाओं से भेदभाव, असमानता, अन्याय संस्कृति में इस कदर मिश्रित हो चुका है कि खुद महिलाएं भी यदा-कदा इसे सही ठहराती नजर आती हैं। पीएचडी की छात्रा अच्छे वर के लिए शुक्रवार और सोमवार का व्रत रखती है तो उससे इसी आशय की पुष्टि होती है।
पितृतंत्रात्मक समाज
      भारतीय समाज में अनादिकाल से ही पितृतंत्रात्मक संरचना रही है। वैदिक काल में भी उल्लेख मिलता है कि पुरुष परिवार का मुखिया होता था। इस व्यवस्था ने पुरुष को वर्चस्ववादी तो महिला को निर्बल बना दिया। वर्तमान सामाजिक व्यवस्था, मान्यताएं, प्रणाली, रीति-रिवाज, सामाजिक बंधन, मर्यादाएं सभी पुरुषों के वर्चस्व का परिणाम हैं। इन सभी के व्यवहार में आने से पुरुष ऊपर उठता गया तो महिला निरंतर नीचे की ओर अग्रसर हुई।
      अगर आज अधिकतर महिलाएं गृह कार्यों तक सीमित हैं तो यह पितृतंत्रात्मक प्रणाली की देन है। अपनी योग्यता, शक्ति, बुद्धि और सृजनात्मक शक्ति दिखाने के अवसर घर से बाहर मौजूद हैं। पुरुष ने महिलाओं को इनसे वंचित कर इन पर अपना एकाधिकार जमा लिया। प्राचीन सभ्यताओं, वैदिक काल, हड़प्पा संस्कृति, मैसोपोटामिया, मिश्र की सभ्यता आदि में कार्य विभाजन इसी तर्ज पर हुआ है। महिलाएं घरेलू कार्य करती थीं तो पुरुष घर से बाहर के कार्य। 21वीं सदी तक गृह कार्य करते-करते महिलाएं मानने लगी हैं कि उनका काम बच्चे पैदा करना, उनका पालन-पोषण करना, चूल्हा-चौका करना, पुरुषों की डांट-डपट सहना और उनकी शारीरिक भूख मिटाना है। पितृतंत्रात्मक प्रणाली ने महिलाओं  और पुरुषों दोनों के लिए अलग-अलग मापदंड निर्धारित किए है। इनका निर्धारण पुरुषों द्वारा किया गया, इसलिए महिला को बंधनों में बांधकर पुरुष ने अपने लिए आजादी, वर्चस्व, कार्यक्षेत्र, अधिकार निर्धारित किए। यहीं से महिला और पुरुष में भेद शुरू हुआ। काल दर काल यह व्यवस्था मजबूत होती गई। उत्तराधिकार की परंपरा ने पुत्र प्राथमिकता को जन्म दिया। जन्म से मिले अधिकारों और सामाजिक व्यवस्था के कारण लड़के, इंजीनियरिंग, चिकित्सा आदि की पढ़ाई की ओर उन्मुख होते हैं तो लड़कियां गृह-विज्ञान और सिलाई-कढ़ाई की ओर। विभेद की नींव बचपन से ही रख दी जाती है। एक लड़का कार, जीप, सिपाही आदि खिलौनों के साथ खेलता है तो लड़की गुडिय़ा की शादी कराती है।
शारीरिक भेद
     फायर स्टोन ने लिंग वर्ग के संदर्भ में कहा है कि नारी की शारीरिक व्यवस्था उसकी प्रताडऩा का कारण है। यह निर्विवाद सत्य है कि शारीरिक विभेद प्राकृतिक और सार्वभौमिक है। पुरुष और नारी के शरीर की बनावट, आवाज, जनन अंगों, वक्षस्थल की बनावट में अंतर नैसर्गिक है। यह भेद सभी जातियों और प्रजातियों में पाया जाता है। यह भेद किसी एक को बौद्धिक या शारीरिक रूप से अधिक क्षमताशील नहीं बनाता। नरेंद्र कुमार सिंघी ने अपनी पुस्तक समाज शास्त्रीय सिद्धांत-विवेचना एवं व्याख्या में उल्लेख किया है कि नारी का शारीरिक और बौद्धिक विकास पुरुष की सोच, अपेक्षा, और कल्पना के अनुरूप हुआ है। नारी की चाल-ढाल, व्यवहार, तौर-तरीके, मर्यादा, आदतें, अंग सज्जा, श्रंगार, वस्त्र आदि सब कुछ पुरुषों ने अपनी पसंद के अनुसार निर्धारित किया है। महिला ने स्व को भुलाकर इसे आत्मसात किया है।
      पुरुष ने महिला के जीवन के तमाम पहलू और आयाम खुद निर्धारित कर उसके दिमाग और सोच पर कब्जा कर लिया। स्त्री के शरीर को कौमार्य, पवित्रता, नख-शिख वर्णन, वैधव्य, रजस्वला, बलात्कार, वेश्वावृत्ति आदि से जोड़कर उसका उसके शरीर से भी हक छीन लिया। जब महिला का अपने शरीर, दिमाग, मन, बुद्धि पर ही अधिकार नहीं तो बराबरी की कहां कल्पना की जा सकती है। सदियों से पुरुष निर्मित कुटिल और भेदपूर्ण व्यवस्था का हिस्सा बने रहने के कारण महिला अपनी पहचान खो बैठी और उस नक्शे-कदम पर चल पड़ी जिस पर पुरुष उसे चलाना चाहता था। समाज में महिलाओं को महिलाओं पर ही उसके बांझ, विधवा, चरित्र आदि को लेकर ताने मारते देखा जा सकता है।
नारी विरोधी साहित्य
      साहित्य में भी नारी के साथ न्याय नहीं किया गया। कहीं उसे स्वर्ग की प्राप्ति में बाधक तो कहीं प्रताडऩा का अधिकारी बता दिया। यह जानना आवश्यक है कि यह साहित्य पुरुषों का ही लिखा हुआ है। उसे भोग्या बताकर उसकी तमाम सृजनात्मक क्षमताओं को नकार दिया गया। एकाध जगह मीरा, लक्ष्मी बाई, रजिया सुल्ताना के गीत भी भूल से गाये गए हैं।
      साहित्य, टीवी, पत्रिकाओं आदि में महिलाओं की बौद्धिक सुंदरता को नकार कर उसके शरीर को खूब बेचा जा रहा है। अपने घिनौने कृत्य का सहारा लेने के लिए जो दिखता है वो बिकता है वाक्यांश ईजाद कर लिया। नारी के शरीर को काम से जोड़कर बड़ी चतुराई से उसकी रचनात्मक, सृजन शक्ति, बौद्धिक शक्तियोंंको दर-किनार कर उसे एक जिस्म, एक वस्तु और खिलौने के रूप में स्थापित किया जा रहा है। महिलाएं भी इसे अपना विकास मानकर खिलौना बनकर रह गई हैं।
      इस समाजीकरण के कारण एक ही परिवार का हिस्सा होते हुए भी एक बालक और एक बालिका अलग-अलग वातावरण, विचारों और धारणाओं के साथ बढ़ते हैं। भविष्य का घर का स्वामी होने के कारण  बालक को साहसिक, बौद्धिक और आक्रामक वृत्ति की ओर प्रवृत्त किया जाता है तो बालिका को इन सबसे दूर क्षमा, भय, लज्जा, सहनशीलता, सहिष्णुता आदि गुणों को आत्मसात करने के लिए पे्ररित किया जाता है।
सामाजिक लांछन
     पुरुष ने स्त्री के शरीर के भिन्न-भिन्न अर्थ निकाले हैं। कौमार्य को उसकी शारीरिक पवित्रता और मातृत्व को उसकी पूर्णता से जोड़कर देखा जाता है। विधवा, बिन ब्याही मां बनना, बलात्कार, तलाक, वेश्यावृत्ति, बांझपन आदि का कारण पुरुष बनता है जबकि परिणाम केवल महिला भोगती है। बिन ब्याहे बाप, तलाकशुदा, नपुंसक पुरुष के लिए तो कोई लांछन तो पुरुषों ने गढ़े ही नहीं। इसी तरह सुंदर वर प्राप्ति, संतान, अगले जन्म, पति की लंबी आयु के लिए स्त्रियों के लिए तमाम प्रपंच  बने। लेकिन पुरुषों ने अपने को इस प्रकार के बंधनों से आजाद रखा।
      हाल ही में भारतीय प्रैस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने टिप्पणी की थी कि मीडिया कर्मियों को बलात्कार, छेड़छाड़ आदि की घटनाओं में पीडि़ता का नाम प्रकाशित नहीं करना चाहिए। सामाजिक व्यवस्था के कारण पीडि़त महिलाओं का नाम मीडिया में सार्वजनिक होने के बाद उनके विवाह की संभावना कम हो जाती है। दूसरी ओर, बलात्कार के दोषी पुरुष  के साथ ऐसा नहीं होता। पुरुष वर्चस्व और दोहरे मापदंडों के कारण कितनी ही महिलाएं वैवाहिक बलात्कार झेलती है जिनका कहीं कोई रिकार्ड नहीं होता। परिवार नियोजन के लिए भी महिला का शरीर की इस्तेमाल होता है, जबकि पुरुष की नसबंदी अपेक्षाकृत आसान और अधिक सुरक्षित है। बालिका को जन्म से ही बताया जाता है-पिता का घर उसका नहीं है। ससुराल आकर उसे महसूस होता है कि यह घर भी उसका नहीं है। महिला जिंदगी भर घर विहिन रहती है और दोहरा, उत्पीडऩ, पीड़ा और अपमान झेलती है। 

सुखद है बदलाव की बयार
     नि:संदेह महिला उत्पीडऩ और अधिकारों के हनन की श्रंखला बहुत लंबी है। उत्पीडऩ और अधिकारों के हनन का कारण सामाजिक संरचना, पितृतंत्रात्मक व्यवस्था और पुरुष का वर्चस्व है।  इसलिए इस समस्या का निदान भी संस्थाओं के परिवर्तन में ही छुपा है। खुद से ही पहल कर समाज की तस्वीर बदली जा सकती है। नारीवाद आंदोलन और शिक्षा की बदौलत महिलाएं जागरूक हुई हैं। उन्होंने अधिकारों की प्राप्ति के लिए आवाज उठानी शुरू कर दी है। फिलहाल यह समाज के उच्च वर्गों में चल रहा है। निम्रवर्ग इस परिवर्तन की बयार से अभी भी अछूता हैं। समाज के सभी वर्गों तक पहुंचने के लिए ढांचे में परिवर्तन की जरूरत है।

Monday, February 20, 2012

यह ईरान है ईराक या अफगानिस्तान नहीं


    ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर पूरे विश्‍व में बहस छिड़ी हुई है। इजराइल के लिए यह व्यक्तिगत दुश्मनी तो अमेरिका के प्रभुत्व को सीधे तौर पर चुनौती। दुनिया भर की निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि इरान विरोधी देशों का अगल कदम क्या होगा? निश्चित तौर पर इस मामले में ईरान या ईरान विरोधी देशों का कोई भी कदम पूरे विश्व को प्रभावित करने वाला होगा।
    अमेरिका बहुत पहले से ईरान पर परमाणु कार्यक्रम चलाने का आरोप लगाता आ रहा था। ईरान भी इसे लगातार नकारता आया था। अब खुद ईरान ने दुनिया के सामने परमाणु कार्यक्रम की घोषणा कर दी है। ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने परमाणु ऊर्जा सयंत्र में 20 प्रतिशत तक संवृद्धित यूरेनियम की छड़ें डालने की बात कहीं है। हालांकि परमाणु बम के लिए यूरेनियम का बहुत अधिक संवृद्धित होना जरूरी होता है। इस लिहाज से ईरान द्वारा परमाणु बम बनाने की शंकाए निर्मूल हैं। फिर भी ईरान का परमाणु कार्यक्रम कई मायनों में महत्वपूर्ण है।
    ईरान ने परमाणु कार्यक्रम की घोषणा ऐसे समय में की है जब उस पर भारत में ईजराइली राजनयिक को निशाना बनाने और बैंकॉक में धमाके करने के आरोप लग रहे हैं। ईजराइल इन हमलों के पीछे ईरान का हाथ बता रहा है। दिल्ली और बैंकॉक धमाकों ने ईजराइल को ईरान की आलोचना करने का एक और मौका दे दिया है। उसने सुरक्षा परिषद से कार्रवाई तक की मांग कर डाली। यह बात अलग है कि उसकी मांग को रुस ने वीटो का इस्तेमाल कर निरस्त कर दिया।
    यह बहस यहीं पर आकर समाप्त नहीं हो जाती। परमाणु हथियारों की दृष्टि से अमेरिका सबसे समृद्ध राष्ट्र है। अमेरिका और उसके पिछलग्गू देश इस पर अपना एकाधिकार बनाये रखना चाहते हैं। अमेरिका ग्रुप को यह नागवार गुजरता है कि कोई और देश इस तकनीकी को हासिल करे। जैसे-जैसे विज्ञान में प्रगति हो रही है और लोगों की जरूरतें बढ़ रही हैं, परमाणु ऊर्जा की जरूरत और इसकी पर निर्भरता बढ़ती जा रही है।
    अमेरिका अफगानिस्तान और ईराक पर बहाने ढूंढकर हमले कर चुका है। दोनों ही जगह पर अमेरिका और उसके सहयोगियों की कूटनीतिक हार हुई।  अंतरराष्ट्रीय  बिरादरी में किरकिरी हुई सो अलग। ईरान का परमाणु कार्यक्रम ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिए है। फिर भी अमेरिका एंड पार्टी के लिए यह नागवार है। अफगानिस्तान और ईराक में दोनों हाथ जला चुका अमेरिका अब और लड़ाई लडऩे की स्थिति में नहीं है।  वहीं ईरान में ईराक की तरह कमजोर नहीं है। अमेरिका खुद बेरोजगारी और मंदी की मार झेल रहा है। अगर लड़ाई छिड़ी तो ईरान से अधिक नुकसान अमेरिका को उठाना पड़ेगा। अफगानिस्तान और ईराक के हुक्मरानों को जनसमर्थन हासिल नहीं था तो ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद के साथ पूरा ईरान खड़ा है। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में रूस जैसा देश। हां, अमेरिका और उसके सहयोगी मिलकर ईरान पर प्रतिबंद्ध जरूर लगा सकते हैं। इसका असर इरान पर महंगाई और बेरोजगारी के रूप में हो सकता है और विश्व पटल पर तेल की महंगाई के रूप में। भारत का इस मुद्दे पर रुख प्रशंसनीय है। ईरान, भारत के तेल व्यापार में सबसे बड़ा सांझीदार है। इस लिहाज से भारत किसी भी सूरत में ईरान पर कार्रवाई का समर्थन नहीं कर सकता।
    क्यूबा के राजनेता फिदेल कास्त्रो की तरह ईरान के राष्ष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद भी अमेरिका के धुर विरोधी हैं। यहां सवाल परमाणु कार्यक्रम का नहीं, अमेरिका की दादागिरी का है। अमेरिका परमाणु कार्यक्रम चलाये तो सही और कोई दूसरा करे तो गलत। अगर परमाणु बम घातक है तो यह बात अमेरिका के बमों पर भी लागू होती है। अगर अमेरिका खुद परमाणु हथियारों को न रखता तो उसका विरोध वाजिब होता। अब न तो ईजराइल और न ही अमेरिक एंड पार्टी का विरोध कोई महत्व रखता।

Sunday, February 5, 2012

All's fair in Love, War and Politics!

The recent verdict of supreme court that nullify 112 licenses of 11 comanies of telecome sector, is historical in many ways. These companies were allotted spectrum in 2008 when former telecom minister A. Raja was in power. This decision not only drew the right picture of corruption prevailed in the Indian system, also the ground reality of two leading political parties of country. Ironically Congress and Bhartiya Janta Party, both are playing heinous game over decision, instead of taking a lesson.
Congress is busy in resurrecting its image saying that BJP should apologize to country. And BJP got opportunity to curse congress. In fact both are guilty.
The verdict not only accused former telecome minister A. Raja, but the whole system of allocation of spectrum, first come, first served. BJP developed this system in 2003. Congress followed it and allocated 2G Spectrum to near and dear at cheapest cost ignoring all the rules and regulation. BJP is accused of developing such dubious system and Congerss for following. No one is innocent.
CAG submitted its 77 pages report to government on 2G Spectrum on 25th of September 2010 estimating 1,76,645 crores loss to government in spectrum allocation. This was one of the biggest scam of Indian history. UPA government rejected report knowing everything. HRD minister Kapil Sibble asserted that government had no loss in 2G Spectrum allocation. Janta Party president Subramanyam Swami wrote to PM to get registered a case against A. Raja. But government shelved the matter for kept waiting.
Now the Supreme Court had stamped on it and the very HRD minister Kapil Sibble now blames BJP asking apologize to country. It has been cleared that only A. Raja was not behind the scam. Prime minister Dr. Manmohan Singh and Union Home minister P. Chidambram are guilty equally. BJP and Congress should have taken a lesson form verdict. Both are loosing their faith. How the public can rely upon both. But nobody cares public. As all's fair in politics also like love and war...........?

Tuesday, January 31, 2012

मतदान के प्रति उदासी लाजिमी है

संविधान ने 18 वर्ष से अधिक आयु के सभी नागरिकों को मतदान करने का अधिकार दिया हुआ है। लेकिन आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि पूरे 100 फीसदी मतदान हुआ हो। देश का औसत मतदान केवल 58 फीसदी है। ऐसा नहीं है कि लोगों को मतदान की महत्ता पता नहीं है। मतदान सत्ता की चाबी है जो अप्रत्यक्ष रूप से जनता के पास होती है। सब कुछ जानते हुए भी अगर लोग मतदान नहीं करते तो निश्चय ही यह गंभीर समस्या है और इसका निदान खोजा जाना चाहिए।
आजादी से आज तक के राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें। नागरिकों की मतदान के प्रति उदासीनता उसी में छुपी है। सत्ता कुछेक परिवारों की रखैल बन कर रह गई है जो उसका अपनी इच्छा से प्रयोग करते हैं। जो सत्ता को हासिल नहीं कर पाए वे सत्ताधारियों के साथ लग गए ताकि अपनी राजनीतिक वंश बेल को हरा रख सकें। गांधी परिवार तो इसका जीता-जागता उदाहरण है।
हम अपनी संस्कृति पर गर्व करते हैं। उसे अपना आदर्श मानते हैं। भले, ही यह संभव हो, पर हम रामराज्य का ख्वाब देखते आए हैं। हर नेता में राम को ढूंढऩे का प्रयास करते हैं। रोटी, कपड़ा और मकान के लुभावने वायदों पर आज तक कितने ही चुनाव लड़े गए। फिर भी देश की 80 फीसदी से अधिक आबादी 20 रुपये से भी कम रोजाना पर गुजारा करें, 42 फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हों और मानव विकास सूचकांक में बांग्लादेश जैसे छोटे देश से भी पीछे हों तो निराशा जरूर होती है।
जब जन प्रतिनिधियों से उम्मीदें समाप्त हो जाएं तो मतदान से उदासी होना स्वाभाविक है। जब मतदान करने और न करने से कोई फर्क ही न पड़ तो मतदान का क्या फायदा? अब यह बात गांव-देहात में बैठे लोगों को भी समझ में आने लगी है। एक किसान व्यंग्य करते हुए कहता है मतदान से क्या फायदा। सभी प्रत्याशी इतने अच्छे हैं कि यह चयन करना मुश्किल हो जाता है कि श्रेष्ठ कौन है।
न तो आम आदमी चुनाव में खड़ा हो सकता है और न ही जीत सकता है। यही से लोगों की मजबूरी शुरू होती है। मजबूरन लोगों को उन्हीं बेईमान-भ्रष्ट लोगों में से एक का चयन करना पड़ता है। ईमानदार और शिक्षित लोग या तो राजनीति में आते नहीं या उन्हें जल्दी ही आउट कर दिया जाता है। राजनीति इतनी दूषित हो चुकी है कि अगर कोई ईमानदार आदती आ भी जाए तो परिस्थितियां उसे बेईमान बना देती हैं। कुल मिलाकर अंत में भ्रष्टï लोग ही टिक पाते हैं। यही आज तक बार-बार होता है। लोग अब मतदाता कार्ड का प्रयोग देश का भविष्य चुनने से अधिक पहचान पत्र के रूप में करते हैं। संवैधानिक अधिकार केवल पहचान तक सीमित हो गया है। घटता मतदान स्वस्थ लोकतंत्र का प्रतीक नहीं है। इन सब समस्याओं का समाधान केवल राजनेताओं की मानसिकता के बदलाव में है।

Thursday, January 12, 2012

शर्म निरपेक्ष नेता का साक्षात्कार

एंकर- नमस्कार। एक नेता से मुलाकात कार्यक्रम में आपका स्वागत है। गली, चौराहे, हाट, चौपाल आदि सब जगह चुनावी शौर है। रैलियों, जलसों, लाउड स्पीकरों, नारों आदि का शौर मतदाताओं को भ्रम में डाल सकता है। इसलिए हमने मतदाताओं की सुविधा के लिए एक विशेष कार्यक्रम चलाया हुआ है जिसका नाम है एक नेता से मुलाकात। इस कार्यक्रम में हम हर रोज आपको एक पार्टी नेता से मिलवाते हैं और उनकी पार्टी की विचारधारा, एजेंडा, प्राथमिकताओं आदि के बारे में जनता को रूबरू कराते हैं। आज हमारे साथ हैं अखिल भारतीय शर्म निरपेक्ष पार्टी के सुप्रीमो छदम सिंह। इन्होंने चुनाव की घोषणा से कुछ समय पहले ही अपनी पार्टी का गठन किया है। नवगठित पार्टी बिना किसी की मदद लिए अपने दम पर चुनाव लडऩे जा रही है। आइये इनसे  इनकी पार्टी की विचारधारा और एजेंडा के बारे में बातचीत करते हैं और जानें कि  उनकी पार्टी किस प्रकार दूसरी पार्टियों से जुदा है। छदम सिंह जी कार्यक्रम में स्वागत है।
छदम सिंह- शुक्रिया।
एंकर- तो छदम सिंह जी सबसे पहले आप अपनी पार्टी के गठन और नाम के बारे में बताएं।
छदम सिंह- देश की स्थिति बहुत गंभीर है। नेताओं की कथनी और करनी में बहुत अधिक अंतर है। चुनाव जीतने से पहले विचारधारा कुछ और होती है तो चुनाव जीतने के बाद कुछ और। नेता जनता को भ्रम में रखते हैं। जनता उनकी सच्चाई को आज तक नहीं जान पाई है। नहीं तो क्या मजाल की छह दशक में भी देश वहीं का वहीं पड़ा रह जाए। हमारा मानना है कि नेता को जनता से कुछ छुपाने का अधिकार नहीं है। हमारी यही विचारधारा दूसरी पार्टियों को रास नहीं आई। इसलिए हमने अपनी नई पार्टी अखिल भारतीय शर्म निरपेक्ष पार्टी पार्टी।  पार्टी का मकसद राजनीतिक तंत्र में पारदर्शिता लाना है।
एंकर- छदम सिंह जी पार्टी का यह नाम कैसे सूझा?
छदम सिंह- यही तो हमार पार्टी का सबसे स्ट्रोंग प्वाइंट है। हमारी पार्टी में सबका स्वागत है। बस, शर्त एक है। पार्टी में आने के इच्छुक व्यक्ति का शर्म निरपेक्ष होना जरूरी है। उसमें झिझक नहीं होनी चाहिए। देश को बदलने का बीड़ा उठाया है तो लोग उस पर कीचड़ भी उछाल सकते हैं, आरोप भी लग सकते हैं। अगर शर्म करने लगे तो अपना ही भला रही कर पाएंगे। देश का भला करना तो दूर। हमारी पार्टी बहुत दूर का सोचती है। इसलिए पार्टी केनेताओं और वर्करों का धर्म निरपेक्ष से अधिक शर्म निरपेक्ष होना जरूरी है।
एंकर- आपकी पार्टी किन बातों को लेकर जनता के बीच जा रही है?
छदम सिंह- अच्छा प्रश्न पूछा आपने। हम जनता को वास्तविकता बताएंगे। छह दशक में कितनी राजनीतिक पार्टियों का गठन और विलय हुआ। सभी अपने को धर्म निरपेक्ष बताते रहे। क्या वास्तव में कोई धर्म निरपेक्ष निकला। सभी ने धर्म के नाम पर खेल खेला। और इस कदर नए तरीके से खेलते गए कि हर बार जनता की हार हुई। लेकिन हम दावा करते हैं कि हम शर्म निरपेक्ष हैं और हमेशा रहेंगे। जैसा अब बता रहे हैं वैसा ही चुनाव के बाद भी रहेंगे। उसी के आधार पर हम जनमत तैयार करेंगे।
एंकर- आपकी पार्टी के उम्मीदवारों की योग्यता क्या होगी? मतलब उनकी उम्र, शिक्षा आदि।
छदम सिंह- यह कोई कोई नौकरी थोड़े ही है। यह तो देश को बदलने का। जिसके दिल में यह भावना है, वहीं हमारा उम्मीदवार होगा। देशभक्ति की भावना को उम्र और शिक्षा से क्या लेना?
एंकर- शुरुआत कहां से करेंगे?
छदम सिंह- एक बार  चुनाव तो होने दो। हमारी तो पार्टी ही विकास कार्य शुरू करने के लिए है। विकास कार्र्यों के इतने उद्धाटन करेंगे कि आज तक किसी ने नहीं किए होंगे। मैंने अपने पार्टी नेताओं से पहले ही कह दिया है कि विकास कार्य शुरू करने में कोई कमी नहीं आनी चाहिए।
एंकर- आपकी पार्टी दूसरी पार्टियों से क्या अलग है?
छदम सिंह- पार्टी की विचारधारा के अनुरूप मैंने कुछ भी नहीं छिपाया है। जनता हम पर सवाल नहीं उठा पाएगी, बस। किसी काम में और किसी से शर्म न करना ही तो शर्म निरपेक्षता है।
एंकर- क्या आपको लगता है कि आप देश बदल पाएंगे?
छदम सिंह- भारत जैसे विशाल देश को बदलने में कई शताब्दियां लग जाएंगी। हमारी पार्टी ने सीधे लाभ पहुंचाने की योजना बनाई है। जब सभी को लाभ पहुंचेगा तो देश अपने आप ही आगे निकल जाएगा। पार्टी की प्राथमिकता उसके वफादार सिपाहियों को पहले लाभ देने की रहेगी। देश बदले न बदले हम अपने आपको और चलन को जरूर बदल देंगे। जो करेंगे जनता के सामने करेंगे।
एंकर- अपना चुनाव चिह्न क्या है?
छदम सिंह-नौका। बस एक बार आप पार कर दीजिए। फिर हम अपने दम पर पार कर लिया करेंगे।
एंकर- कार्यक्रम में आने केलिए छदम सिंह जी आपका बहुत-बहुत शुक्रिया।
छदम सिंह-धन्यवाद।
एंकर- तो ये थे अखिल भारतीय शर्म निरपेक्ष पार्टी के सुप्रीमो छदम सिंह। ये स्पष्टïवादिता केकारण जाने जाते हैं। इन्होंने बताया कि विकास कायों का उद्घाटन करने मेंं कोई कमी नहीं रहने दी जाएगी। पार्टी जनता से कुछ नहीं छुपाएगी। शायद देश के इतिहास में पहली बार कोई ऐसी पार्टी बनी है जो सब कुछ जनता के सामने करेगी। अब मतदाताओं को तय करना है कि वे किसे अपना प्रतिनिधि चुनते हैं। हमारे साथ यूं ही बने रहिए। अगली कड़ी में आपसे फिर मुलाकात होगी, एक नए नेता के साथ। नमस्कार।

Monday, January 9, 2012

वह तो होना ही था

     2011 में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। इनका श्रेय लेने वालों मे सारा साल शीत युद्ध चले, लेकिन सच्चाई कुछ और है। हालात ऐसे बने हुए थे कि वह तो होना ही था।
बंगाल  में वामपंथियों का लगभग तीन दशन के राज का हार के साथ रिकार्ड टूट गया। लोग धीरे-धीरे जागरूक हो रहे हैं। वैसे भी परिवर्तन प्रकृति का नियम है। बिल्ली के भाग्य का छिक्का टूट गया और दीदी जीत गई। लगातार मीठा खाने के बाद नमकीन खाने को दिल कर ही जाता है। जीतना क्या है? वह तो होना था।
     पूर्व दूरसंचार मंत्री राजा ने इतना बेशुमार धन खाया कि जनता और मीडिया की नजरों में आ गए। सरकार को मजबूरन सख्ती दिखानी पड़ी। अब तिहाड़ की शोभा बढ़ा रहे हैं। इसमें कार्रवाई कहां हुई? काम ऐसे अच्छे किए थे कि वह तो होना ही था।
     राजा के व्यवसायी मित्र कलमाड़ी को जेल भेजने के पीछे केंद्र अपनी पीठ थपथपा रहा है। मौके-बेमौके बोल पड़ते हैं हमें भ्रष्टचार कतई सहन नहीं। व्यवसायी मित्र इसलिए कि दोनों ने एक जैसे ही काम को अंजाम दिया था। दोषी के खिलाफ कार्रवाई नहीं तो और क्या किया जाएगा? जेल गए। वह तो होना ही था।
      ओसामा बिन लादेन के पीछे अमेरिका ने तोरा-बोरा की पहाडिय़ों की खान छान मारी। दस साल पीछे पड़े रहे, लेकिन शेर अपनी गुफा में नहीं मिला। खतरा हुआ तो पड़ोसी की मांद में जा घुसा। पाकिस्तान भी अमेरिका को भारत की तरह बेवकूफ नहीं बना सका। ढूंढ़कर उसी की मांद में शिकार कर दिया। वह तो होना ही था।
     सदियों से गुलामी झेलने वाली जनता को आजादी के बाद भी आजादी नहीं मिली। हर काम के लिए पैसे मांगना जैसे अधिकारियों का जन्मसिद्ध अधिकार बन गया था। अन्ना ने आवाज उठाई तो सारा देश उठ खड़ा हुआ। तंग जो आ चुके थे। वह तो होना ही था।
     कालेधन की वापसी के लिए बाबा रामदेव भी साधकों के साथ रामलीला मैदान में आ डटे। दुर्भाग्य से उस दिन रामलीला नहीं रावणलीला का मंचन होना था। शायद यही बात बाबा को पता नहीं थी। वैसे भी ईमानदार नेता अपनी असलियत जनता के सामने आने से लज्जाने का नाटक करते हैं। शायद लज्जा होती तो ऐसे काम ही नहीं करते। रामलीला मैदान में रावणलीला का सफल मंचन हो गया। चिदंबरम और सिब्बल ने जोश में आकर तालियां बजा दी। वह तो होना ही था। उनसे देश को उम्मीदें भी वैसी ही थीं?
     अक्तूबर में दिल को ठेस लगाकर जगजीत सिंह न जाने कहां चले गए? उनकी गजलों पर झूमें हैं तो खोने का दुख तो होना ही था। दिसंबर में सदाबहार गाइड आनंद साहब चले गए। दुनिया गाइड विहीन हो गई। वह तो होना ही था।  जब सरकार ने मल्टी ब्रांड रिटेल सेक्टर में 51 फीसदी एफडीआई का प्रस्ताव रखा तो विपक्ष समेत पूरे देश ने विरोध किया। बेरोजगारी तो पहले ही अधिक है। आखिर और कितने दुकानदारों को बेरोजगार होने देते। विरोध के परिणामश्वरूप सरकार को प्रस्ताव वापस लेना पड़ा। वह तो होना ही था। ऐसे ही सोशल साइट्स पर बैन लगाने का प्रस्ताव भी वापस लेना पड़ा।
     पाकिस्तान में मेमोगेट सैकेंडल चर्चा में है। सेना के डर से गुपचुप तरीके से सरकार ने अपना रोना अमेरिका के आगे रो दिया। सेना से डर भी कोई झूठा नहीं है। कई बार तख्ता पलट हुए हैं। अब सेना और सरकार आमने-सामने हैं। वह तो होना ही था। अन्ना तीसरी बार मुंबई में अनशन पर बैठ गए। सरकार समय बिताने में लगी रही। आखिरी दिन आधी रात को लोकपाल अटक गया। राजनेताओं का इतिहास ऐसा है कि उन्होंने कुछ भी अपेक्षाओं के विपरित नहीं किया। अपने खिलाफ कोई कार्रवाई थोड़े ही चाहता है। लोकपाल बिल का मुद्दा एक बार के लिए लटक गया। वह तो होना ही था। 


Wednesday, January 4, 2012

किसानों की बर्बादी पर राजनीति

    वर्ष 2011 किसानों को लंबे समय तक याद रहेगा। साल भर महंगाई ने लोगों को सताया, लेकिन सबसे अधिक प्रभावित हुए किसान।  जब उनकी फसल पक कर तैयार हुई तो दाम इतने गिरे की लागत भी पूरी नहीं हुई। धान और आलू की फसल ने किसानों को बर्बादी के कगार पर ला खड़ा किया।
    इससे घटिया और विफल कृषि नीति क्या हो सकती है कि जब किसान अपनी चीज बेचे तो एक रुपये किलो और जब किसान उसी चीज को बाजार से खरिदे तो दस रुपये किलो। कृषि नीति की विफलता और बाजारी शक्तियों की सफलता के कारण फसल कोई उगाता है, मेहनत कोई करता है, उसका मुनाफा कोई और ले जाता है और सारे मामले पर राजनीति कोई और ही खेल जाता है।
    उत्पादक और उपभोक्ता के बीच में काम करने वाली शक्तियां इस मंदी की मार में भी मुनाफा कमा गई। इन शक्तियों ने कभी फसल में पानी नहीं दिया, धूप में उनकी कटाई नहीं की, बीज लेने के लिए सुबह चार बजे से लाइन में नहीं लगे और कभी यूरिया के लिए भाग दौड़ नहीं की। फिर भी इनका मुनाफा यह सब झेलने वाले किसान से अधिक है। अंधी पीसे और कुत्ता खाए वाली नीतियों को तो सफल नहीं कहा जा सकता।
    यहां किसान बर्बाद हो रहे हैं और सरकार उनकी बर्बादी पर भी अपनी पीठ थपथपा रही है। धान, टमाटर, आलू आदि दूसरी फसलों की कीमतें कम होने का परिणाम यह हुआ कि खाद्य मुद्रास्फीति  में करीब तीन साल के बाद पहली बार गिरावट दर्ज की गई। महंगाई के कारण आलोचना झेल चुकी सरकार खाद्य पदार्थों की मुद्रास्फीति में गिरावट का श्रेय उसकी आर्थिक नीतियों को दे रही है। यहां यह जानना आवश्यक है कि खाद्य मुद्रास्फीति फसलों के दाम कम होने के कारण कम हुई किसी की आर्थिक नीतियों की बदौलत नहीं।
    आर्थिक नीतियों की सफलता तब मानी जाती, जब वह किसानों को उनकी फसलों के वाजिब दाम दिलाती और कीमतों को नियंत्रण में रखती।  जब किसान से फसल खरिदी जाती है उस समय कीमतें मामूली और जब वहीं चीज उपभोक्ताओं तक पहुंचती है तो कीमतें आसमान पर। सरकार इन दोनों ही कामों के असफल हुई।  सरकार उत्पादक और उपभोक्ताओं के बीच बाजारी शक्तियों, मुनाफाखोरों, कालाबाजारी आदि मूल्य वृद्धि के कारणों पर रोक लगाने में विफल हो गई। अगर सरकार इस बीच के सैगमेंट पर नियंत्रण कर पाती तो आर्थिक नीतियों को श्रेय देना तर्कसंगत होता। 
    मुद्रास्फीति कम करने के रिजर्व बैंक के तमाम प्रयास विफल हो गए। क्या कभी ऐसा भी हुआ है कि नीतियां सफल हो जाएं और उसका परिणाम भुगतने वाले कंगाल। अगर सरकार बाजारी ताकतों पर नियंत्रण नहीं लगा पाती तो किसान को इतना सक्षम बनाए कि कोई उसकी फसल को औने-पौने दामों में खरिदने की जरूरत न कर सके। जब सबकुछ बाजार तय करेगा तो दोनों पक्षों का बराबर होना जरूरी है। विपरित स्थिति में बाजार पर सरकार का नियंत्रण होना अत्यंतावश्यक है।

Sunday, January 1, 2012

मजाक-मजाक में

       आजकल जिधर देखो सिक्वेल की भरमार है। सिक्वेल तो पहले भी आते रहे, लेकिन अधिक चर्चा में कुछेक दिन से ही आए हैं। सिक्वेल का हाल यह है कि किसी ने तीसरे चरण में जाकर मारखाई तो किसी की शुरुआत ही खराब हो गई। उसके बाद सिक्वेल का ख्वाब ही दिल से निकाल दिया।
      आजकल डॉन-2 बड़ी चर्चा में है। शायद इस बार डॉन का स्टेंडर्ड बढ़ गया है। हो सकता है इस बार पूरी दुनिया की पुलिस उसकी खबर कर रही हो। 14 अप्रैल 1978 को रिलीज हुई अमिताभ बच्चन की डॉन का जादू आज भी बरकरार है कि शाहरुख खान की दोनों डॉन हिट हो गई। फिल्मों की सफलता ने उसे कम से कम सफल डॉन तो बना ही दिया। धूम-2, मर्डर-2 जैसे सिक्वेल भी सफल हो गए।
      सिक्वेल की सफलता के दौर में अन्ना अनशन का सिक्वेल फेल हो गया। खेल में तालियां बजें, किलकारियां लगे, थोड़ा हला हो तो खेलने वचालों का हौशला बढ़ता है। जब कोई ताली बजाने वाला न हो तो खेलने का क्या औचित्य? कोई तारीफ करने वाला नहीं हो तो संवरने का क्या फायदा?
     मूल अनशन और उसका पहला सिक्वेल तो बहद सफल रहा, लेकिन दूसरा सिक्वेल गच्चा खा गया। अप्रैल में अन्ना का अनशन शुरू हुआ तो देश ने हाथों-हाथ लिया। सरकार के हाथ-पांव फूल गए। नौ अप्रैल को अनशन तुड़वाया।
      एक बार शतक लग जाए तो बार-बार बैटिंग करने को दिल चाहता है। नेताओं ने तो न सुधरने की कमस खाई हुई थी। नतीजन बाबा रामदेव ने भी योग क्रियाएं तेज कर दीं। पांच जून 2011 को दिल्ली के रामलीला मैदान में आ डटे। बाबा का शो अन्ना के अनशनल से भी हिट जा रहा था। रात को अचानक बादल गरजे और रामलीला मैदान में बिजली गिर गई। बिजली तो स्वभाव से ही चपला होती है और ऐसे ही उसको गिराने वाले। अपनी गलती कहां मानने वाले थे। मीन-मेख निकालते हुए बाबा रामदेव कोक कटघरे में ला खड़ा किया। इस देश में सच बोलना भी तो गुनाह है? शायद यही बात बाबा को समझ नहीं आई।
     जब कोई हलचल नहीं हुई तो टीम अन्ना ने 20 अगस्त 2011 को दिल्ली के उसी रामलीला मैदान में अन्ना अनशन-2 रिलीज कर दिया। साठ साल से सोए कुंभकर्ण जागने लगे। शो देखने और दिखाने वाले पहली रामलीला से सबक ले चुके थे। भीड़ इतनी उमड़ी कि इस बार न बिजली में गिरने की हिम्मत हुई और न ही गिराने वालों की।  अन्ना अनशन का सिक्वेल सुपर-डुपर हिट हो गया। बिजली गिराने वाले चिंचौरियां करते हुए शो खत्म कराने में जुट गए। बेशर्म तो नहीं सोचता, अंत में ईज्जतदार को ही सोचना पड़ता है। खैर, 28 अगस्त 2011 को शो समाप्त हो गया।
     लाज की उम्मीद उस इन्सान से की जाती है जिसे कुछ शर्म बची हो। फरहान अख्तर के डॉन-2 बनाने की चर्चा होने लगी। सरकार ने ऐसे हालात पैदा कर दिए कि अन्ना टीम को 27 दिसंबर को तीन दिन के लिए अन्ना अनशन-3 रिलीज करना पड़ा। डॉन-2 ऊपर और अनशन-3 नीचे। अन्ना को शो निर्धारित समय सीमा से एक दिन पहले ही खत्म करना पड़ा। लोग दिल बहलाने के लिए डॉन-2 देखने वाली भीड़ का हिस्सा तो बनी, लेकिन देश को भूल गए। अनशन-3 समाप्त हुआ तो अगले ही दिन सरकार ने अपनी असलियत दिखा दी। जिसके खून में बेवफाई हो उसे वफा कहां से आती? लोकपाल बिल अटक गया।
     लहरों से उरकर कभी नौका पार नहीं होती और कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। अगर सिक्वेल न निकलते तो शायद लोकपाल बिल आज भी उसी जगह पड़ा होता जहां सालों से पड़ा था। फ्लॉप शो पर ना तुम निराश हो बाबा और ना तुम अन्ना। मौसम सदा एक जैसा नहीं रहता। हर शो फ्लॉप नहीं होता। दोनों मिलकर शो करो। इस बार सफलता की गारंटी पक्की। अब तक सब चलता था क्योंकि हम चलने देते थे? लेकिन अब नहीं चलेगा क्योंकि हम नहीं चलने देंगे।