फिलहाल एक बार तो कांग्रेस ने एफडीआई के नाम पर बोरियां-बिस्तर समेट लिए हैं। कांग्रेस पर इसका राजनीतिक दबाब हो सकता है। लेकिन यह बहस अभी समाप्त नहीं हुई है कि मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी एफडीआई देशहित में होगा या देश के लिए घातक। आम आदमी समझ नहीं पा रहा है कि वह किस तरफ जाए। एफडीआई के पक्ष व विपक्ष दोनों तरफ से बराबर का शौर है।
वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा एफडीआई के फायदे गिनाते नहीं थक रहे। वहीं भाजपा व दूसरी कांग्रेस विरोधी पार्टियां एफडीआई का इतना कुटिल विरोध कर रही हैं कि पता नहीं वे कांग्रेस का विरोध कर रहे हैं या एफडीआई का। एफडीआई भारतीय अर्थव्यवस्था को अंदर तक प्रभावित करने की क्षमता रखता है। यह देश के लिए दोधारी तलवार के मानिंद है। एफडीआई से देश को लाभ अधिक होगा या नुकसान यह इसके क्रियान्वयन पर निर्भर करता है।
एफडीआई के पक्षधर मुद्रा स्फिति की कम दर, वाजिब दाम, रोजगार सृजन, कृषि पदार्थों की बर्बादी रोकने, विकास को एफडीआई से जोड़कर देख रहे हैं। अब भी वॉलमार्ट जैसे ग्लोबर रिटेलर अधिकतर सामान भारत से खरिदते हैं। भारत में तैयार माल पर ब्रांड उनके देश में लगता है। ब्रांड लगाने के बाद जब वही सामान वापस भारत में आता है तो उसकी कीमतें अधिक हो जाती है। अगर देश में ही ब्रांडिंग होगी तो सामान भारत में ही तैयार होगा और सीधे यही से बिकेगा। इस लिहाज से उपभोक्ताओं को कम कीमत पर सामान उपलब्ध होगा।
इसका दूसरा पहलू कोल्ड स्टोरेज और चेन वेल्यू है। भारत में दोनों बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। इस कारण देश का 10 से 15 फीसदी खाद्यान्न तो स्टोरेज व्यवस्था न होने के कारण खराब हो जाता है। फल-सब्जियों का आंकड़ा तो 40 फीसदी के आपपास है। अगर किसान अथवा उत्पादक को घर पर ही खरीददार मिलेंगे तो खाद्यान्नों की अनावश्यक बर्बादी रूकेगी। बाजार में प्रतियोगिता होने के कारण किसानों उनकी फसलों के वाजिब दाम मिलेंगे। दूसरा बर्बादी रूकने से अनावश्यक मूल्य वृद्धि भी नहीं होगी। देसी उद्योगों पर नकारात्मक असर न पड़े इसके लिए विदेशी कंपनियों को अपनी खरिद का 30 प्रतिशत भाग छोटे अथवा मझौले उद्योगों से खरिदना अनिवार्य बनाया गया है।
भले ही एफडीआई के लिए कुछ भी शर्तें रखी हों, लेकिन देश को केवल लाभ ही होगा इस बात की क्या गारंटी है? कीमतें कम होना, फसलों के वाजिब दाम मिलेंगे, खाद्य पदार्थों की बर्बादी रूकेगी आदि के केवल कयास लगाए जा रहे हैं। इस प्रकर की बातें तो 1991 में एलपीजी मॉडल अपनाते समय भी की गई थी। एलपीजी मॉडल के फायदे और नुकसान आज 20 साल बाद सबके सामने हैं। विकास के नाम पर 80 करोड़ से अधिक लोग 20 रुपए से भी कम पर गुजारा कर हैं। नक्सलवाद दिन-दिन बढ़ता ही जा रहा है। अमीर-गरीब के बीच की दूरी निरतंर बढ़ रही है।
एफडीआई के आने से जितनी मुद्रा स्फिति कम होने, रोजगार आदि बढऩे की संभावना है उतनी ही कीमतें व बेरोजगारी बढऩे की भी आशंकाएं हैं। हो सकता है विदेशी निवेशक घरेलू रिटेलरों को समाप्त करने के लिए शुरुआत में रिहायत या छूट देकर बाजार तैयार करें और बाद में मनमाफिक कीमतें वसूले। अगर ऐसा हुआ तो बेरोजगारी तो बढ़ेगी ही साथ ही मुद्रा स्फिति भी नई ऊंचाईयों पर पहुंचेगी।
एफडीआई में केवल 30 फीसदी घरेलू खरिद का प्रावधान है। अगर 70 फीसदी खरीद बाहर के देशों से हुई तो अकेले 30 फीसदी खरीद के सहारे तो विकास का ख्वाब नहीं पाला जा सकता। ऐसे में घरेलू अर्थव्यवस्था का क्या होगा ?
एफडीआई से रोजगार सृजन को लेकर भी आशंका है। क्या हुआ अगर वॉलमार्ट जैसी कंपनियां कुछ लोगों को रोजगार दे देंगी। लेकिन कृषि से जुड़ी 60 फीसदी बेरोजगार होने वाली आबादी की गारंटी कौन लेगा?
गांव के आम आदमी तक एलपीजी मॉडल के लाभ से अधिक उसकी आंच पहुंची है। अगर ऐसा नहीं होता तो विदर्भ में किसान आत्महत्या को मजबूर नहीं होते। अगर एफडीआई से कुछ मुट्ठी भर लोगों का विकास हुआ तो क्या उसे देश का विकास मान लिया जाएगा?
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