क्या करूं मैं ऐसा ही हूं...

Sunday, December 11, 2011

कहीं लोकपाल बिल पर चाल तो नहीं चली केंद्र ने

    मल्टी ब्रांड रिटेल सेक्टर में 51 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को अनुमति देने के यूपीए सरकार के प्रस्ताव ने समूचे देश को इसके विरोध में खड़ा कर दिया। इसके विरोध में लगातार नौ दिन संसद में काम नहीं चल सका। एफडीआई के चौतरफा विरोध को देखते हुए लगता था जैसे दूसरे मुद्दे गौण हो गए हैं।
    समाजसेवी अन्ना हजारे ने अपना दूसरा अनशन इस शर्त पर तोड़ा था कि संसद के शीलकालीन सत्र में सशक्त लोकपाल बिल पारित किया जाएगा। 20 अगस्त से 28 अगस्त तक चले अन्ना के दूसरे अनशन में हुई फजीहत को देखते हुए उस समय तो कांग्रेस ने आई बला को पारित करने का वादा कर टाल दिया था। अब वहीं सरकार लोकपाल बिल के पास भी नहीं फटक रही।
    शीतकालीन सत्र में केंद्र सरकार ने पहले एफडीआई तो बाद में सोशल साइट्स पर पाबंदी का सुर छेड़ दिया। दोनों मुद्दों पर सरकार की कटु आलोचना हुई है। सरकार को एक-एक कर दोनों मसलों पर विरोध को देखते हुए झुकना पड़ा। सत्र की शुरुआत से पहले पूरे देश को लोकपाल बिल के पास होने की उम्मीदें लगी थी। एफडीआई और सोशल साइट्स पर पाबंदी दोनों मुद्दों
ने मुद्रास्फिति, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार आदि मामलों को महत्वहीन कर दिया।
    दो बार अनशन कर केंद्र को उसकी असलियत दिखा चुके अन्ना हजारे लोकपाल बिल को लेकर तीन बार धरने पर बैठने की बात कह कर इस ओर ध्यान खींचने में लगे हैं। लेकिन यही मसला दोनों मुद्दों के आगे अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण सा लगता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि केंद्र ने सोची-समझी चाल के तहत लोकपाल बिल से लोगों का ध्यान भटकाने के लिए एफडीआई और सोशल साइट्स पर बनने लगाने की बात कही हो।

Saturday, December 10, 2011

सोशल साइट्स पर पाबंदी अनुचित

      दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल ने सोशल साइट्स पर पाबंदी लगाने का बयान देकर नई बहस छेड़ दी है। सोशल साइट्स को सेंसर करना आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीनने जैसा है। पढ़ी-लिखी आबादी का बड़ा वर्ग इन साइट्स पर वीडियो, तस्वीरें, विचार, संदेश आदि एक दूसरे से शेयर करते हैं। ये संदेश कितने लोगों से संबंध रखते हैं इसकी गिनती करना भी संभव नहीं है।
    सवाल यह है कि पहले कभी सोशल साइट्स को सेंसर करने की बात नहीं की गई। फिर अब अचानक इसकी क्या आवश्यकता पड़ गई?  दूरसंचार मंत्री के मुताबिक सोशल साइट्स पर अश्लील व आपत्तिजनक सामग्री को दिखाया जाता है। अगर ऐसा है भी तो पहले से ही काननू मौजूद हैं। ऑनलाइन मानहानि, अश्लील इलेक्ट्रोनिक जानकारी के प्रसारण व प्रकाशन पर रोक आदि दंडनीय अपराध की श्रेणी में रखे गएहैं। 11 अप्रैल 2011 से तो सूचना प्रौद्योगिकी कानून भी लागू हो चुका है। इसके तहत किसी भी मीडिया कंपनी को अश्लील या आपत्तिजनक सामग्री मिलती है तो उसे 36 घंटे में हटाना अनिवार्य किया हुआ है। इतने प्रावधान होने के बाद भी साइट्स को सेंसर करना अनुचित है। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून ने भी सोशल साइट्स पर पाबंदी को अनुचित बताया है।
    सोशल साइट्स को सेंसर करने का सरकार का कदम आपातकाल की याद दिलाता है। अभिव्यक्ति पर रोक 1975 से 1977 तक आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने लगाई थी जिसके परिणाम मीडिया और राजनीति अच्छी तरह से जानते हैं और झेल भी चुके हैं।
    किसी भी प्रकार की अनुचित, अश्लील, भड़काऊ या अपमानजनक सामग्री का प्रकाशन या प्रसारण दोनों ही खतरनाक हैं। देशहित में ऐसी सामग्री  पर रोक लगाना उचित है। लेकिन प्रसारण की पूरी व्यवस्था पर पूरी तरह रोक लगाना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है।
    देश में भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी आदि को लेकर यूपीए सरकार के खिलाफ गहरा रोष है। कांग्रेस को साइट्स पर विचारों के संप्रेषण से कोई एतराज नहीं बल्कि ऐतराज तो सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर की जा रही टिप्पणियों से है।
    सोशल साइट्स पर किसी व्यवस्था के खिलाफ विचार या संदेश व्यक्त करना ठीक वैसे है जैसे धरना अथवा प्रदर्शन कर किसी के खिलाफ विरोध दर्ज कराना। अगर सरकार लोगों से उनका  अधिकार छीन लेगी तो बाकि अधिकारों को देना और ना देना लगभग एक जैसा हो जाएगा।
    इस मुद्दे का एक अन्य पहलू यह भी है कि साइट्स को सेंसर करने का मामला प्रेक्टिकल रूप सें अव्यवहारिक है। दुनिया भर में सोशल साइट्स का संचालन करने वाली कंपनियां अकेले भारत में क्यों सेंसर करेंगी? सबसे बेहतर कदम सेल्फ-सेंसरशिप है। इंटरनेट यूजर्स सावधानी से सोशल साइट्स का प्रयोग करें और किसी भी तस्वीर, संदेश, विचार आदि शेयर करने से पहले सोचें की इससे किसी की भावनाएं आहत तो नहीं हो रही।

Wednesday, December 7, 2011

मोस्ट वांटेड कौन?

    यह प्रश्न जितना रोचक है उतना ही गंभीर कि मोस्ट वांटेंड कौन है। ओसामा बिन लादेन और सद्दाम हुसैन तो गुजरे जमाने की बातें हो चुकी हैं। दाउद अब्राहम अब भी पकड़ से बाहर है। लेकिन वह मोस्ट वांटेड जैसी इमेज नहीं रखता। मुंबई बम धमाकों को अर्सा हो चुका है। अब तो देश की पुलिस भी मौके-बेमौके ही याद करती है कि उसे दाउद को भी पकडऩा है। हमारे मित्र इतने अच्छे है कि उनके यहां दाउद खुले में सैर करता है, रिश्तेदारियां निभाता है और जब पूछा जाता है तो जवाब मिलता है कि दाउद तो वहां आया ही नहीं।
    अरे छोडि़ए, हम मोस्ट वांटेड को ढूंढ़ रहे थे। भक्तों की संख्या देखकर एक बार तो भगवान भी मोस्ट वांटेड लगते हैं। भारत बड़ा हिप्पोके्रटिक देश है। यह बात कहने वाले बहुत मिलेंगे कि प्रभु प्राप्ति ही जीवन का ध्येय है। साथ ही यह कहते भी नहीं भूलते कि भगवान को आज तक किसी ने नहीं देखा है। यह बात दूसरी है कि यहां हर दूसरा साधु भगवान से मीटिंग कराने की गारंटी लेता मिलेगा। हमारी शरण मेें आओ भगवान की प्राप्ति बहुत आसानी से होगी। जितनी देर चाहो बातें करना। देश में भगवान से मिलाने वाले इतनी अधिक संख्या में हैं कि भगवान को मोस्ट वांटेड की कैटेगिरी में रखना गलत प्रतीत होता है।
    मोस्ट वांटेड कौन है? इसे जानने के लिए दिमाग के तमाम घोड़े पूरी स्पीड से दौड़ा लिए, पर मोस्ट वांटेड का पता फिर भी नहीं लगा। घोड़े थक गए तो सर्वे का सहारा लिया। लोगों ने अपने-अपने हिसाब से मोस्ट वांटेड की सूची मुझे सौंप दी। सबका मोस्ट वांटेड अलग-अलग था।
    एक दिन इंटरव्यू के लिए बस स्टैंड पर इंतजार कर रहा था। काफी देर तक बस नहीं आई तो रिक्शा पर ही चलने में भलाई समझी। मैं इंटरव्यू के ख्यालों में गुम था कि रिक्शावाले का मोबाइल गूंजा। रिक्शावाले भी मोबाइल रखने लगे हैं। यह सोचकर खुशी हुई कि देश प्रगति के रास्ते पर अनवरत अग्रसर हो रहा है।
    बीच-बीच में रिक्शावाला अंग्रेजी के शब्द भी बोल रहा था। पता चला रिक्शावाला अच्छा पढ़ा-लिखा था। अपने समय का कॉलेज टॉपर था। नौकरी नहीं मिली। पापी पेट का सवाल है। लिहाजा रिक्शा खींचना ही शुरू कर दिया। मैंने उसकी शिक्षा के बारे में क्या पूछ लिया उसकी दुखती रग पर पांव रख दिया हो जैसे। कोई विभाग ऐसा नहीं था जहां उसने नौकरी के लिए आवेदन न किया हो। नौकरी नहीं मिली तो किसी बाप ने अपनी बेटी देने की जहमत नहीं उठाई।
    रिक्शावाला बोल उठा, अगर नौकरी मिल गई होती तो मेरी जिंदगी का रुख और दु:ख कुछ और होता। नौकरी नहीं तो शादी नहीं, सुना तो दिमाग में फिर से मोस्ट वांटेड वाला विचार आया। ये दोनों ही मोस्ट वांटेड हैं। नौकरी और छोकरी। रास्ते में गल्र्स कॉलेज के पास लड़कों की भीड़ मंडरा रहीं थी। आगे पहुंचा तो पता चला दो पोस्ट के लिए दो हजार से अधिक ने आवेदन किया था।
   

Tuesday, December 6, 2011

एफडीआई देश के लिए हितकर या घातक?


    फिलहाल एक बार तो कांग्रेस ने एफडीआई के नाम पर बोरियां-बिस्तर समेट लिए हैं। कांग्रेस पर इसका राजनीतिक दबाब हो सकता है। लेकिन यह बहस अभी समाप्त नहीं हुई है कि मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी एफडीआई देशहित में होगा या देश के लिए घातक। आम आदमी समझ नहीं पा रहा है कि वह किस तरफ जाए। एफडीआई के पक्ष व विपक्ष दोनों तरफ से बराबर का शौर है।
    वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा एफडीआई के फायदे गिनाते नहीं थक रहे। वहीं भाजपा व दूसरी कांग्रेस विरोधी पार्टियां एफडीआई का इतना कुटिल विरोध कर रही हैं कि पता नहीं  वे कांग्रेस का विरोध कर रहे हैं  या एफडीआई का। एफडीआई भारतीय अर्थव्यवस्था को अंदर तक प्रभावित करने की क्षमता रखता है। यह देश के लिए दोधारी तलवार के मानिंद है। एफडीआई से देश को लाभ अधिक होगा या नुकसान यह इसके क्रियान्वयन पर निर्भर करता है।
    एफडीआई के पक्षधर मुद्रा स्फिति की कम दर, वाजिब दाम, रोजगार सृजन, कृषि पदार्थों की बर्बादी रोकने, विकास को एफडीआई से जोड़कर देख रहे हैं। अब भी वॉलमार्ट जैसे ग्लोबर रिटेलर अधिकतर सामान भारत से खरिदते हैं। भारत में तैयार माल पर ब्रांड उनके देश में लगता है। ब्रांड लगाने के बाद जब वही सामान वापस भारत में आता है तो उसकी कीमतें अधिक हो जाती है। अगर देश में ही ब्रांडिंग होगी तो सामान भारत में ही तैयार होगा और सीधे यही से बिकेगा। इस लिहाज से उपभोक्ताओं को कम कीमत पर सामान उपलब्ध होगा।
    इसका दूसरा पहलू कोल्ड स्टोरेज और चेन वेल्यू है। भारत में दोनों बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। इस कारण देश का 10 से 15 फीसदी खाद्यान्न तो स्टोरेज व्यवस्था न होने के कारण खराब हो जाता है। फल-सब्जियों का आंकड़ा तो 40 फीसदी के आपपास है। अगर किसान अथवा उत्पादक को घर पर ही खरीददार मिलेंगे तो खाद्यान्नों की अनावश्यक बर्बादी रूकेगी। बाजार में प्रतियोगिता होने के कारण किसानों उनकी फसलों के वाजिब दाम मिलेंगे। दूसरा बर्बादी रूकने से अनावश्यक मूल्य वृद्धि भी नहीं होगी। देसी उद्योगों पर नकारात्मक असर न पड़े इसके लिए विदेशी कंपनियों को अपनी खरिद का 30 प्रतिशत भाग छोटे अथवा मझौले उद्योगों से खरिदना अनिवार्य बनाया गया है।
    भले ही एफडीआई के लिए कुछ भी शर्तें रखी हों, लेकिन देश को केवल लाभ ही होगा इस बात की क्या गारंटी है? कीमतें कम होना, फसलों के वाजिब दाम मिलेंगे, खाद्य पदार्थों की बर्बादी रूकेगी आदि के केवल कयास लगाए जा रहे हैं। इस प्रकर की बातें तो 1991 में एलपीजी मॉडल अपनाते समय भी की गई थी। एलपीजी मॉडल के फायदे और नुकसान आज 20 साल बाद सबके सामने हैं। विकास के नाम पर 80 करोड़ से अधिक लोग 20 रुपए से भी कम पर गुजारा कर हैं। नक्सलवाद दिन-दिन बढ़ता ही जा रहा है। अमीर-गरीब के बीच की दूरी निरतंर बढ़ रही है।
    एफडीआई के आने से जितनी मुद्रा स्फिति कम होने, रोजगार आदि बढऩे की संभावना है उतनी ही कीमतें व बेरोजगारी बढऩे की भी आशंकाएं हैं। हो सकता है विदेशी निवेशक घरेलू रिटेलरों को समाप्त करने के लिए शुरुआत में रिहायत या छूट देकर बाजार तैयार करें और बाद में मनमाफिक कीमतें वसूले। अगर ऐसा हुआ तो बेरोजगारी तो बढ़ेगी ही साथ ही मुद्रा स्फिति भी नई ऊंचाईयों पर पहुंचेगी।
    एफडीआई में केवल 30 फीसदी घरेलू खरिद का प्रावधान है। अगर 70 फीसदी खरीद बाहर के देशों से हुई तो अकेले 30 फीसदी खरीद के सहारे तो विकास का ख्वाब नहीं पाला जा सकता। ऐसे में घरेलू अर्थव्यवस्था का क्या होगा ?
    एफडीआई से रोजगार सृजन को लेकर भी आशंका है। क्या हुआ अगर वॉलमार्ट जैसी कंपनियां कुछ लोगों को रोजगार दे देंगी। लेकिन कृषि से जुड़ी 60 फीसदी बेरोजगार होने वाली आबादी की गारंटी कौन लेगा?
    गांव के आम आदमी तक एलपीजी मॉडल के लाभ से अधिक उसकी आंच पहुंची है। अगर ऐसा नहीं होता तो विदर्भ में किसान आत्महत्या को मजबूर नहीं होते। अगर एफडीआई से कुछ मुट्ठी भर लोगों का विकास हुआ तो क्या उसे देश का विकास मान लिया जाएगा?

Saturday, December 3, 2011

विरोध के लिए विरोध क्यों?

 कांग्रेस ने मल्टी ब्रांड रिटेल सेक्टर में 51 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश  ( एफडीआई) की अनुमति देने का प्रस्ताव क्या रख दिया, भाजपा व दूसरे विपक्षी दलों को हल्ला मचाने का मोका मिल गया.  एफडीआई के विरोध करने वालों में अकेली भाजपा ही नहीं है. उसके साथ तृणमूल कांग्रेस, वाम दल और कुछ कांग्रेसी नेता भी शामिल हैं.  विरोध इतने जबरदस्त तरीके से किया जा रहा हैं की बहस के की कोई गुंजाइश नजर नहीं आती.
एफडीआई का सबसे अधिक विरोध भाजपा कर रही है .  उसका तर्क है कि मल्टी ब्रांड रिटेल सेक्टर में एफडीआई के आने से देश के करीब 2  करोड़ खुदरा व्यापारी प्रभावित होंगे और महंगाई बढेगी. भाजपा कि कुछ आशंकाएं  सही भी हैं. लेकिन भाजपा इस मुद्दे को सोची समझी रणनीति के तहत सियाशी रंग देने में लगी है. वह भाजपा ही थी जिसने मई 2002 में मल्टी ब्रांड रिटेल सेक्टर में 100 फीसदी  एफडीआई का प्रस्ताव रखा था. भाजपा देश को बताए कि यही एफडीआई उस समय देश के लिए लाभदायक किस प्रकार था? तात्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा और वाणिज्य और उद्योग मंत्री मुरासोली मारन ने 100  फीसदी एफडीआई का प्रस्ताव रखा था. आखिर ये कैसे हो सकता है कि 100 फीसदी  एफडीआई देश के लिए लाभदायक हो और 51  एफडीआई हानिकारक हो?
एफडीआई के विरोध के सुर कांग्रेस के भीतर से भी आ रही हैं. यह किसी मुद्दे सहमति या असहमति का सही तरीका है. इसमें कोई दो राय नहीं कि एफडीआई देश के लिए घातक साबित हो सकता है और इस पर सोच समझ कर ही फैसला लेना चाहिए. लेकिन भाजपा के पास विरोध का कोई ठोस कारण नजर नहीं आता. विपक्ष को यह बात समझनी चाहिए कि संसद में उसकी भूमिका रचनात्मक बहस के लिए होनी चाहिए. विरोध के लिए किसी मुद्दे का विरोध करना उचित नहीं. भाजपा के रुख से लगता है कि कि वह एफडीआई का नहीं कांग्रेस का विरोध कर रही है,