रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी द्वारा पेश किए गए रेल बजट ने भारतीय रेल तंत्र और भारतीय राजनीति की तस्वीर स्पष्ट कर दी। इससे पहले शायद ही कभी किराया वृद्धि पर इतना हल्ला मचा हो। भारतीय रेलतंत्र अव्यवस्था और घाटे के गर्त में फंसा है। रेलमंत्री की किराया बढ़ाकर स्थिति को आंशिक रूप से उभारने की कोशिश पर तृणमूल कांग्रेस, विपक्षी दल और कांग्रेस राजनीति कर रही है उससे विश्व पटल और आम आदमी के दिमाग में भारतीय राजनीति की नकारात्मक छवि बनी है।
रेलमंत्री और रेल बजट का विरोध एक वोट लालसा के अतिरिक्त कुछ नहीं है। रेल बजट प्रकरण ने कम से कम यह तो स्पष्ट कर दिया किया कि भारतीय राजनेताओं के लिए वोट जन कल्याण, मर्यादा और अनुशासन आदि सभी चीजों से ऊपर है। रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने दो पैसे प्रति किलोमीटर से 30 पैसे प्रति किलोमीटर तक किराये में वृद्धि की है। इस वृद्धि पर हो-हल्ला मचाने वालों ने शायद एक बार भी रेलवे की माली आर्थिक हालत के बारे में नहीं सोचा। वर्षों से रेल नेटवर्क को आधुनिक करने की बात चल रही है, लेकिन राजनीतिक हितों के कारण यह तंत्र आधुनिकीकरण से कोसों दूर खड़ा है। रेलमंत्री त्रिवेदी ने रेलतंत्र को आधुनिक बनाने के लिए आगामी दशक में 14 लाख करोड़ रुपये खर्च करने की जरूरत बताई है। मौजूदा बजट में केवल 61,100 करोड़ रुपये खर्च करने का प्रावधान किया गया है। इससे हमारी रेल व्यवस्था की आर्थिक स्थिति आसानी से स्पष्टï हो जाती है। रेलवे के परिचालन और व्यय का अनुपात 95 फीसदी तक बढ़ गया है। रेल बोर्ड के पूर्व चेयरमैन वीके अग्रवाल ने रेलवे की कमाई बढ़ाने की जरूरत बताई है। उनके अनुसार अगर दस फीसदी किराया बढ़ाया जाता तो रेलवे को शायद और मदद मिलती।
घाटे में कब तक दौड़ेगी रेल?
रेलवे के आय और व्यय के निरंतर बढ़ते ग्राफ ने किराया वृद्धि के लिए मजबूर कर दिया। राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति और वोट लालसा में आठ साल तक किराया नहीं बढ़ाया गया। रेल बजट पर आंखें ततेरने वालों से सीधा प्रश्न है कि आखिर कब तक रेल को घाटे मे दौड़ाया जा सकता है। आखिरकार कभी न कभी तो घाटे की दरार को पाटने के लिए कोई सख्त कदम तो उठाना ही पड़ेगा।
किराया वृद्धि न करने की सूरत में तंत्र मजबूती के दो ही उपाय हो सकते हैं-सब्सिडी या उत्पादन ईकाइयों को निजी क्षेत्र को सौंपना। 2001 में मोहन राकेश समिति ने दूसरे विकल्प की सिफारिश की थी। राजनीतिक हितों को देखते हुए दूसरे विकल्प पर अब तक विचार नहीं हो सका। पहले विकल्प के लिए सरकार सक्षम नहीं है। बजट से कुछ दिन पहले वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी कह चुके थे कि सरकार पर सब्सिडी का बोझ निरंतर बढ़ता जा रहा है। यह बोझ इतना बढ़ चुका है कि इसे और नहीं बढ़ाया जा सकता। ऐसी स्थिति में केवल किराया वृद्धि ही अंतिम विकल्प बचता है। एक आदर्श स्टेशन के इंजीनियर के मुताबिक रेलवे इतनी माली हालत से गुजर रहा है कि उसके पास जरूरी काम निपटाने के लिए भी बजट नहीं है। रेलवे बोर्ड के पूर्व वित्तायुक्त एनपी श्रीनिवास ने भी रेल बजट पर राजनीतिक शोर को गलत बताया है। उनका कहना है कि कुछ लोगों के राजनीतिक हितों के लिए रेलवे को रसातल में ले जाना श्रेयकर नहीं है।
और इधर गठबंधन की मजबूरी
किराया वृद्धि कर रेलमंत्री रेलवे का ही कोष भरने की कोशिश कर रहे हैं। जिस पर इतने बड़े तंत्र की जिम्मेदारी हो उसे उसको दुरुस्त के लिए दलगत राजनीति से ऊपर उठकर फैसले लेने ही पड़ते हैं। किराया वृद्धि से ममता इतनी नाराज हुईं कि उन्होंने प्रधानमंत्री को रेलमंत्री त्रिवेदी को हटाने के लिए कथित तौर पर पत्र तक लिख दिया। ममता की इस हेकड़ी से यूपीए सरकार चिंता में है। उसके लिए न तो किराया वापस लेना संभव हो रहा और न ही ममता की नाराजगी सहना। यह पहला मौका नहीं है जब ममता यूपीए को कथित तौर पर ब्लैकमेल कर रही हैं। इससे पहले एनटीपीसी, एफडीआई जैसे मुद्दे ममता के विरोध के कारण ही ठंडे बस्ते में चले गए थे। मनमोहन सरकार आगे कुंआ पीछे खाई वाली स्थिति में है। जब तक सरकार गठबंधन टूटने से डरती रहेगी तब तक देशहित में कोई कारगर कदम नहीं उठा सकती। रेलवे किसी एक पार्टी की संपति या जागीर नहीं है। आखिर बढ़ा हुआ किराया रेलमंत्री की जेब में नहीं जाएगा। बजट में कही गई ट्रैफिक रेगूलेटरी अथोरिटी या कोई ऐसा प्राधिकरण बन जाए तो मालभाड़ा और किराया वृद्धि दलगत राजनीति से मुक्त हो जाएगा।